उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
सदन– अब तो तुम अपने घर ही पहुँच गईं, अमोला क्यों जाओगी? तुम लोगों को कष्ट तो बहुत हुआ, पर इस समय तुम्हारे आने से मुझे जितना आनंद हुआ, यह वर्णन नहीं कर सकता। मैं स्वयं कई दिन से तुम्हारे पास आने का इरादा कर रहा था, लेकिन काम से छुट्टी ही नहीं मिलती। मैं तीन-चार महीने से मल्लाह का काम करने लगा हूं। यही तुम्हारा झोंपड़ा है, चलो अंदर चलो।
सुमन झोंपड़े में चली गई, लेकिन शान्ता वहीं अंधेरे में चुपचाप सिर झुकाए रो रही थी। जब से उसने सदनसिंह के मुंह से वे बातें सुनी थीं, उस दुखिया ने रो-रोकर दिन काटे थे। उसे बार-बार अपने मान करने का पछतावा होता था। वह सोचती, यदि मैं उस समय उनके पैरों पर गिर पड़ती, तो उन्हें मुझ पर अवश्य दया आ जाती। सदन की सूरत उसकी आंखों में फिरती और उसकी बातें उसके कानों में गूंजती। बातें कठोर थीं, लेकिन शान्ता को वह प्रेम-करुणा से भरी हुई प्रतीत होती थीं। उसने अपने मन को समझा लिया था कि यह सब मेरे कुदिन का फल है, सदन का कोई अपराध नहीं। वह वास्तव में विवश हैं। अपने माता-पिता की आज्ञा का पालन करना उनका धर्म है। यह मेरी नीचता है कि मैं उन्हें धर्म के मार्ग से फेरना चाहती हूं। हा! मैंने अपने स्वामी से मान किया! मैंने अपने आराध्यदेव का निरादर किया, मैंने अपने कुटिल स्वार्थ के वश होकर उनका अपमान किया। ज्यों-ज्यों दिन बीतते थे, शान्ता की आत्मग्लानि बढ़ती थी। इस शोक, चिंता और विरह-पीड़ा से वह रमणी इस प्रकार सूख गई थी, जैसे जेठ महीने में नदी सूख जाती है।
सुमन झोंपड़े में चली गई, तो सदन धीरे-धीरे शान्ता के सामने आया और कांपते हुए स्वर से बोला– शान्ता।
यह कहते-कहते उसका गला रुंध गया।
शान्ता प्रेम से गद्गद् हो गई। उसका प्रेम उस विरत दशा को पहुंच गया, जब वह संकुचित स्वार्थ से मुक्त हो जाता है।
उसने मन में कहा, जीवन का क्या भरोसा है? मालूम नहीं, जीती रहूं या न रहूं, इनके दर्शन फिर हों या न हों, एक बार इनके चरणों पर सिर रखकर रोने की अभिलाषा क्यों रह जाए? इसका इससे उत्तम और कौन-सा अवसर मिलेगा? स्वामी! तुम एक बार अपने हाथों से उठाकर मेरे आंसू पोंछ दोगे, तो मेरा चित्त शांत हो जाएगा, मेरा जन्म सफल हो जाएगा। मैं जब तक जीऊंगी, इस सौभाग्य के स्मरण का आनंद उठाया करूंगी। मैं तो तुम्हारे दर्शनों की आशा ही त्याग चुकी थी, किंतु जब ईश्वर ने यह दिन दिखा दिया, तब अपनी मनोकामना क्यों न पूरी कर लूं? जीवनरूपी मरुभूमि में यह वृक्ष मिल गया है, तो इसकी छांह में बैठकर क्यों न अपने दग्ध हृदय को शीतल कर लूं।
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