उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
यह सोचकर शान्ता रोती हुई सदन के पैरों पर गिर पड़ी, किंतु मुरझाया हुआ फूल हवा का झोंका लगते ही बिखर गया। सदन झुका कि उसे उठाकर छाती से लगा ले, चिपटा ले, लेकिन शान्ता की दशा देखकर उसका हृदय विकल हो गया। जब उसने उसे पहले-पहल नदी के किनारे देखा था, तब वह सौंदर्य की एक नई कोमल कली थी, पर आज वह एक सूखी हुई पीली पत्ती थी, जो बसंत ऋतु में गिर पड़ी है।
सदन का हृदय नदीं में चमकती हुई चन्द्र-किरणों के सदृश थरथराने लगा। उसने कांपते हुए हाथों से उस संज्ञाशून्य शरीर को उठा लिया। निराश अवस्था में उसने ईश्वर की शरण ली। रोते हुए बोला– प्रभो, मैंने बड़ा पाप किया है, मैंने एक कोमल संतप्त हृदय को बड़ी निर्दयता से कुचला है, पर इसका यह दंड़ असह्य है। इस अमूल्य रत्न को इतनी जल्दी मुझसे मत छीनो। तुम दयाराम हो, मुझ पर दया करो।
शान्ता को छाती से लगाए हुए सदन झोंपडी में गया और उसे पलंग पर लिटाकर, शोकातुर स्वर से बोला– सुमन, देखो, यह कैसी हुई जाती है। मैं डाक्टर के पास दौड़ा जाता हूं।
सुमन ने समीप आकर बहन को देखा। माथे पर पसीने की बूंदे आ गई थीं, आंखें पथराई हुईं। नाड़ी का कहीं पता नहीं। मुख वर्णहीन हो गया था। उसने तुरंत पंखा उठा लिया और झलने लगी। वह क्रोध जो शान्ता की दशा देख-देखकर महीनों से उसके दिल में जमा हो रहा था, फूट निकला। सदन की ओर तिरस्कारपूर्ण नेत्रों से देखकर बोली– यह तुम्हारे अत्याचार का फल है, यह तुम्हारी करनी है, तुम्हारे ही निर्दय हाथों ने इस फल को यों मसला है। तुमने अपने पैरों से इस पौधे को यों कुचला है। लो, अब तुम्हारा गला छूटा जाता है। सदन, जिस दिन से इस दुखिया ने तुम्हारी वह अभिमान भरी बातें सुनीं, इसके मुख पर हंसी नहीं आई, इसके आंसू कभी नहीं थमे। बहुत गला दबाने से दो-चार कौर खा लिया करती थी। और तुमने उसके साथ यह अत्याचार केवल इसलिए किया कि मैं उसकी बहन हूं, जिसके पैरों पर तुमने बरसों नाक रगड़ी है, जिसके तलुवे तुमने बरसों सहलाए हैं। जिसके प्रेम में तुम महीनों मतवाले हुए रहते थे। उस समय भी तो तुम अपने मां-बाप के आज्ञाकारी पुत्र थे या कोई और थे? उस समय भी तो तुम वही उच्च कुल के ब्राह्मण थे या कोई और थे? तब तुम्हारे दुष्कर्मों से खानदान की नाक न कटती थी? आज तुम आकाश के देवता बने फिरते हो। अंधेरे में जूठा खाने पर तैयार, पर उजाले में निमंत्रण भी स्वीकार नहीं। यह निरी धूर्त्तता है, दगाबाजी है। जैसा तुमने इस दुखिया के साथ किया है, उसका फल तुम्हें ईश्वर देंगे। इसे जो कुछ भुगतना था, वह भुगत चुकी। आज न मरी, कल मर जाएगी, लेकिन तुम इसे याद करके रोओगे। कोई और स्त्री होती, तो तुम्हारी बातें सुनकर फिर तुम्हारी ओर आंख उठाकर न देखती, तुम्हें कोसती, लेकिन यह अबला सदा तुम्हारे नाम पर मरती रही। लाओ, थोड़ा ठंडा पानी।
सदन अपराधी की भांति सिर झुकाए ये बातें सुनता रहा। इससे उसका हृदय कुछ हल्का हुआ। सुमन ने यदि उसे गालियां दी होतीं, तो और भी बोध होता। वह अपने को इस तिरस्कार के सर्वथा योग्य समझता था।
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