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उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास)

सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


उसने ठंडे पानी का कटोरा सुमन को दिया और स्वयं पंखा झलने लगा। सुमन ने शान्ता के मुंह पर पानी के कई छींटे दिए। इस पर जब शान्ता ने आंखें न खोलीं, तब सदन बोला– जाकर डाक्टर को बुला लाऊं न?

सुमन– नहीं, घबराओ मत। ठंडक पहुंचते ही होश आ जाएगा। डाक्टर के पास इसकी दवा नहीं।

सदन को कुछ तसल्ली हुई, बोला– सुमन, चाहे तुम समझो कि मैं बात बना रहा हूं, लेकिन मैं तुमसे सत्य कहता हूं कि उसी मनहूस घड़ी से मेरी आत्मा को कभी शांति नहीं मिली। मैं बार-बार अपनी मूर्खता पर पछताता था। कई बार इरादा किया कि चलकर अपना अपराध क्षमा कराऊं, लेकिन यही विचार उठता कि किस बूते पर जाऊं? घरवालों से सहायता की कोई आशा न थी, और मुझे तो तुम जानती ही हो कि सदा कोतल घोड़ा बना रहा। बस, इसी चिंता में डूबा रहता था कि किसी प्रकार चार पैसे पैदा करूं और अपनी झोंपड़ी अलग बनाऊं। महीनों नौकरी की खोज में मारा-मारा फिरा, कहीं ठिकाना न लगा। अंत को मैंने गंगा-माता की शरण ली और अब ईश्वर की दया से मेरी नाव चल निकली है। अब मुझे किसी सहारे या मदद की आवश्यकता नहीं है। यह झोंपड़ी बना ली है, और विचार है कि कुछ रुपए और आ जाएं, तो उस पार किसी गांव में एक मकान बनवा लूं। क्योंकि, इनकी तबीयत कुछ संभलती मालूम होती है?

सुमन का क्रोध शांत हुआ। बोली– हां, अब कोई भय नहीं है, केवल मूर्च्छा थी। आंखें बंद हो गईं और होठों का नीलापन जाता रहा।

सदन को ऐसा आनंद हुआ कि यदि वहां ईश्वर की कोई मूर्ति होती, तो उसके पैरों पर सिर रख देता। बोला– सुमन, तुमने मेरे साथ जो उपकार किया है, उसको मैं सदा याद करता रहूंगा। अगर और कोई बात हो जाती, तो इस लाश के साथ मेरी लाश भी निकलती।

सुमन– यह कैसी बात मुंह से निकालते हो। परमात्मा चाहेंगे तो यह बिना दवा के अच्छी हो जाएगी और तुम दोनों बहुत दिनों तक सुख से रहोगे। तुम्हीं उसकी दवा हो। तुम्हारा प्रेम ही उसका जीवन है, तुम्हें पाकर अब उसे किसी वस्तु की लालसा नहीं है। लेकिन अगर तुमने भूलकर भी उसका अनादर या अपमान किया, तो फिर उसकी यही दशा हो जाएगी और तुम्हें हाथ मलना पड़ेगा।

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