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सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


विट्ठलदास अभी कुछ निश्चय नहीं करने पाए थे कि आश्रम की अध्यापिका ने आकर कहा– महाशय, आनंदी, राजकुमारी और गौरी घर जाने को तैयार बैठी हैं। मैंने कितना समझाया, पर वे मानती ही नहीं। विट्ठलदास ने झुंझलाकर कहा– कह दो, चली जाएं। मुझे इसका डर नहीं है। उनके लिए मैं सुमन और शान्ता को नहीं निकाल सकता।

अध्यापिका चली गई और विट्ठलदास फिर सोचने लगे। ये स्त्रियां अपने को क्या समझती हैं? क्या सुमन ऐसी गई-बीती है कि उनके साथ रह भी नहीं सकतीं? उनका कहना है कि आश्रम बदनाम हो रहा है और यहां रहने में हमारी बदनामी है। हां, जरूर बदनामी है। जाओ, मैं तुम्हें नहीं रोकता।

इसी समय डाकिया चिट्ठियां लेकर आया। विट्ठलदास के नाम पांच चिट्ठियां थीं।

एक में लिखा था कि मैं अपनी कन्या (विद्यावती) को आश्रम में रखना उचित नहीं समझता। मैं उसे लेने आऊंगा। दूसरे महाशय ने धमकाया था कि अगर वेश्याओं को आश्रम से न निकाला जाएगा, तो वह चंदा देना बंद कर देंगे। तीसरे पत्र का भी यही आशय था। शेष दोनों पत्रों को विट्ठलदास ने नहीं खोला। इन धमकियों ने उन्हें भयभीत नहीं किया, बल्कि हठ पर दृढ़ कर दिया। ये लोग समझते होंगे, मैं इनकी गीदड़-भभकियों से कांपने लगूंगा! यह नहीं समझते कि विट्ठलदास किसी की परवाह नहीं करता। आश्रम भले ही टूट जाए, शान्ता और सुमन को मैं कदापि अलग नहीं कर सकता। विट्ठलदास के अहंकार ने उनकी सद्बुद्धि को परास्त कर दिया। सदुत्साह और दुस्साहस दोनों का स्रोत एक ही है। भेद केवल उनके व्यवहार में है।

सुमन देख रही थी कि मेरे ही कारण यह भगदड़ मची हुई है। उसे दुख हो रहा था कि मैं यहां क्यों आई? उसने कितनी श्रद्धा से इन विधवाओं की सेवा की थी, पर उसका यह फल निकला! वह जानती थी, विट्ठलदास कभी उसे वहां से न जाने देंगे, इसलिए उसने निश्चय किया कि क्यों न मैं चुपके से चली जाऊं? तीन स्त्रियां चली गयी थीं, दो-तीन महिलाएं तैयारी कर रही थीं, और कई अन्य देवियों ने अपने-अपने घर पर पत्र भेजे थे। केवल वही चुपचाप बैठी थीं, जिनका कहीं ठिकाना नहीं था। पर वह भी सुमन से मुंह चुराती फिरती थीं। सुमन यह अपमान न सह सकी। उसने शान्ता से सलाह की। शान्ता बड़ी दुविधा में पड़ी। पद्मसिंह की आज्ञा के बिना वह आश्रम से निकलना अनुचित समझती थी। केवल यही नहीं कि आशा का पतला सूत उसे यहां बांधे हुए था, बल्कि इसे वह धर्म का बंधन समझती थी। वह सोचती थी, जब मैंने अपना सर्वस्व पद्मसिंह के हाथों में रख दिया, तब अब स्वेच्छा-पथ पर चलने का मुझे कोई अधिकार नहीं है। लेकिन जब सुमन ने निश्चित रूप से कह दिया कि तुम रहती हो तो रहो, मैं किसी भांति यहां न रहूंगी, शान्ता को वहां रहना असंभव-सा प्रतीत होने लगा। जंगल में भटकते हुए उस मनुष्य की भांति, जो किसी दूसरे को देखकर उसके साथ इसलिए हो लेता है कि एक से दो हो जाएंगे, शान्ता अपनी बहन के साथ चलने को तैयार हो गई।

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