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सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


सुमन ने पूछा– और जो पद्मसिंह नाराज हों?

शान्ता– उन्हें एक पत्र द्वारा समाचार लिख दूंगी।

सुमन– और जो सदनसिंह बिगड़ें?

शान्ता– जो दंड देंगे, सह लूंगी।

सुमन– खूब सोच लो, ऐसा न हो कि पीछे पछताना पड़े।

शान्ता– रहना तो मुझे यहीं चाहिए, पर तुम्हारे बिना मुझसे रहा न जाएगा। हां, यह बता दो कि कहां चलोगी?

सुमन– तुम्हें अमोला पहुंचा दूंगी।

शान्ता– और तुम?

सुमन– मेरे नारायण मालिक हैं। कहीं तीर्थ-यात्रा करने चली जाऊंगी।

दोनों बहनों में बहुत देर तक बातें हुई। फिर दोनों मिलकर रोईं। ज्योंही आज आठ बजे और विट्ठलदास भोजन करने के लिए अपने घर गए, दोनों बहनें सबकी आंख बचाकर चल खड़ी हुईं।

रात भर किसी को खबर न हुई। सबेरे चौकीदार ने आकर विट्ठलदास से यह समाचार कहा। वह घबराए और लपके हुए सुमन के कमरे में गए। सब चीजें पड़ी हुई थीं, केवल दोनों बहनों का पता न था। बेचारे बड़ी चिंता में पड़े। पद्मसिंह को कैसे मुंह दिखाऊंगा? उन्हें उस समय सुमन पर क्रोध आया। यह सब उसी की करतूत है, वही शान्ता को बहकाकर ले गई है। एकाएक उन्हें सुमन की चारपाई पर एक पत्र पड़ा हुआ दिखाई दिया। लपककर उठा लिया और पढ़ने लगे। यह पत्र सुमन ने चलते समय लिखकर रख दिया था। इसे पढ़कर विट्ठलदास को कुछ धैर्य हुआ। लेकिन इसके साथ ही उन्हें यह दुख हुआ कि सुमन के कारण मुझे नीचा देखना पड़ा। उन्होंने निश्चय कर लिया था कि मैं अपने धमकी देने वालों को नीचा दिखाऊंगा, पर यह अवसर उनके हाथ से निकल गया। अब लोग यही समझेंगे कि मैं डर गया। यह सोचकर उन्हें बहुत दुख हुआ।

आखिर वह कमरे से निकले। दरवाजे बंद किए और सीधे पद्मसिंह के घर पहुंचे।

शर्माजी ने यह समाचार सुना तो सन्नाटे में आ गए। बोले– अब क्या होगा?

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