उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
विट्ठलदास– वे अमोला पहुंच गई होंगी।
शर्माजी– हां, संभव है।
विट्ठलदास– शान्ता इतनी दूर का सफर तो मजे में कर सकती है।
शर्माजी– हां, ऐसी नासमझ तो नहीं है।
विट्ठलदास– सुमन तो अमोला गई न होगी?
शर्माजी– कौन जाने, दोनों कहीं डूब मरी हों।
विट्ठलदास– एक तार भेजकर पूछ क्यों न लीजिए।
शर्माजी– कौन मुंह लेकर पूछूं? जब मुझसे इतना भी न हो सका कि शान्ता की रक्षा करता, तो अब उसके विषय में कुछ पूछ-ताछ करना मेरे लिए लज्जाजनक है। मुझे आपके ऊपर विश्वास था। अगर जानता होता कि आप ऐसी लापरवाही करेंगे, तो उसे मैंने अपने ही घर में रखा होता।
विट्ठलदास– आप तो ऐसी बातें कर रहे हैं, मानो मैंने जान-बूझकर उन्हें निकाल दिया हो।
शर्माजी– आप उन्हें तसल्ली देते रहते, तो वह कभी न जातीं। आपने मुझसे भी अब कहा है, जब अवसर हाथ से निकल गया।
विट्ठलदास– आप सारी जिम्मेदारी मुझी पर डालना चाहते हैं?
पद्मसिंह– और किस पर डालूं? आश्रम के संरक्षक आप ही हैं या कोई और?
विट्ठलदास– शान्ता को वहां रहते तीन महीने से अधिक हो गए, आप कभी भूलकर भी आश्रम की ओर गए? अगर आप कभी-कभी वहां जाकर उसका कुशल समाचार पूछते रहते, तो उसे धैर्य रहता। जब आपने उसकी कभी बात तक न पूछी, तो वह किस आधार पर वहां पड़ी रहती? मैं अपने दायित्व को स्वीकार करता हूं, पर आप भी दोष से नहीं बच सकते।
पद्मसिंह आजकल विट्ठलदास से चिढ़े हुए थे। उन्होंने उन्हीं के अनुरोध से वेश्या-सुधार के काम में हाथ डाला था, पर अंत में जब काम करने का अवसर पड़ा तो साफ निकल गए। उधर विट्ठलदास भी वेश्याओं के प्रति उनकी सहानुभूति देखकर उन्हें संदिग्ध दृष्टि से देखते थे। वह इस समय अपने-अपने हृदय की बात न कहकर एक-दूसरे पर दोषारोपण करने की चेष्टा कर रहे थे। पद्मसिंह उन्हें खूब आड़े हाथों लेना चाहते थे, पर यह प्रत्युत्तर पाकर उन्हें चुप हो जाना पड़ा। बोले– हां इतना दोष मेरा अवश्य है।
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