उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
विट्ठलदास– नहीं, आपको दोष देना मेरा आशय नहीं है। दोष सब मेरा ही है। आपने जब उन्हें मेरे सुपुर्द कर दिया, तो आपका निश्चिंत हो जाना स्वाभाविक ही था।
शर्माजी– नहीं, वास्तव में यह सब मेरी कायरता और आलस्य का फल है। आप उन्हें जबर्दस्ती नहीं रोक सकते थे।
पद्मसिंह ने अपना दोष स्वीकार करके बाजी पलट दी थी। हम आप झुककर दूसरे को झुका सकते हैं, पर तनकर किसी को झुकाना कठिन है।
विट्ठलदास– शायद सदनसिंह को कुछ मालूम हो। जरा उन्हें बुलाइए।
शर्माजी– वह तो रात से ही गायब है। उसने गंगा के किनारे एक झोंपड़ा बनवा लिया है, कई मल्लाह लगा लिए हैं और एक नाव चलाता है। शायद रात वहीं रह गया।
विट्ठलदास– संभव है, दोनों बहनें वहीं पहुंच गई हों। कहिए, तो जाऊं?
शर्माजी– अजी नहीं, आप किस भ्रम में हैं। वह इतना लिबरल नहीं है। उनके साये से भागता है।
अकस्मात् सदन ने उनके कमरे में प्रवेश किया। पद्मसिंह ने पूछा– तुम रात कहां रह गए? सारी रात तुम्हारी राह देखी।
सदनसिंह ने धरती की ओर ताकते हुए कहा– मैं स्वयं लज्जित हूं। ऐसा काम पड़ गया कि मुझे विवश होकर रुकना पड़ा। इतना समय भी न मिला कि आकर कह जाता। मैंने आपसे शरम के मारे कभी चर्चा नहीं की, लेकिन इधर कई महीने से मैंने एक नाव चलाना शुरू किया है। वहीं नदी के किनारे एक झोंपड़ा बनवा लिया है। मेरा विचार है कि इस काम को जमकर करूं। इसलिए आपसे उस झोंपड़े में रहने की आज्ञा चाहता हूं।
शर्माजी– इसकी चर्चा तो लाला भगतराम ने एक बार मुझसे की थी, लेकिन खेद यह है कि तुमने अब तक मुझसे इसे छिपाया, नहीं तो मैं भी कुछ सहायता करता। खैर, मैं इसे बुरा नहीं समझता, बल्कि तुम्हें इस अवस्था में देखकर मुझे बड़ा आनन्द हो रहा है लेकिन मैं यह कभी न मानूंगा कि तुम अपना घर रहते हुए अपनी हांड़ी अलग चढ़ाओ। क्या एक नाव का और प्रबंध हो, तो अधिक लाभ हो सकता है?
सदन– जी हां, मैं स्वयं इसी फिक्र में हूं। लेकिन इसके लिए मेरा घाट पर रहना जरूरी है।
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