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सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


शर्माजी– भाई, यह शर्त तुम बुरी लगाते हो। शहर में रहकर तुम मुझसे अलग रहो, यह मुझे पसंद नहीं। इसमें चाहे तुम्हें कुछ हानि भी हो, लेकिन मैं न मानूंगा।

सदन– नहीं चचा, आप मेरी यह प्रार्थना स्वीकार कीजिए। मैं बहुत मजबूर होकर यह कह रहा हूं।

शर्माजी– ऐसी क्या बात है, जो तुम्हें मजबूर करती है? तुम्हें जो संकोच हो, वह साफ-साफ क्यों नहीं कहते?

सदन– मेरे इस घर में रहने से आपकी बदनामी होगी। मैंने अब अपने उस कर्त्तव्य का पालन करने का संकल्प कर लिया है, जिसे मैं कुछ दिनों तक अपने अज्ञान और कुछ समय तक अपनी कायरता और निंदा के भय से टालता आता था। मैं आपका लड़का हूं। जब मुझे कोई कष्ट होगा, तो आपका आश्रय लूंगा, कोई जरूरत पड़ेगी, तो आपको सुनाऊंगा, लेकिन रहूंगा अलग और मुझे विश्वास है कि मेरे इस प्रस्ताव को पसंद करेंगे।

विट्ठलदास बात की तह तक पहुंच गए। पूछा– कल सुमन और शान्ता से तुम्हारी मुलाकात नहीं हुई?

सदन के चेहरे पर लज्जा की लालिमा छा गई, जैसे किसी रमणी के मुख पर से घूंघट हट जाए। दबी जबान से बोला– जी हां।

पद्मसिंह बड़े धर्म-संकट में पड़े। न ‘हां’ कह सकते थे, न ‘नहीं’ कहते बनता था। अब तक वह शान्ता के संबंध में अपने को निर्दोष समझते थे। उन्होंने इस अन्याय का सारा भाग अपने भाई के सिर डाला था और सदन तो उनके विचार में काठ का पुतला था। लेकिन अब इस जाल में फंसकर वह भाग निकलने की चेष्टा करते थे। संसार का भय तो उन्हें नहीं था, भय था कि कहीं भैया यह न समझ लें कि यह सब मेरे सहारे से हुआ है, मैंने ही सदन को बिगाड़ा है। कहीं यह संदेह उनके मन में उत्पन्न हो गया, तो फिर कभी मुझे क्षमा न करेंगे।

पद्मसिंह कई मिनट तक इसी उलझन में पड़े रहे। अंत में वह बोले– सदन, यह समस्या इतनी कठिन है कि मैं अपने भरोसे पर कुछ नहीं कर सकता। भैया की राय लिए बिना ‘हां’ या ‘नहीं’ कैसे कहूं? तुम मेरे सिद्धान्त को जानते हो। मैं तुम्हारी प्रशंसा करता हूं और प्रसन्न हूं कि ईश्वर ने तुम्हें सद्बुद्धि दी। लेकिन मैं भाई साहब की इच्छा को सर्वोपरि समझता हूं। यह हो सकता है कि दोनों के अलग रहने का प्रबन्ध कर दिया जाए। जिसमें उन्हें कोई कष्ट न हो। बस, यहीं तक। इसके आगे मेरा कुछ सामर्थ्य नहीं है। भाई साहब की जो इच्छा हो, वही करो।

सदन– क्या आपको मालूम नहीं कि वह क्या उत्तर देंगे?

पद्मसिंह– हां, यह भी मालूम है।

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