उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
सदन– तो उनसे पूछना व्यर्थ है। माता-पिता की आज्ञा से मैं अपनी जान दे सकता हूं, जो उन्हीं की दी हुई है, लेकिन किसी निरपराध की गर्दन पर तलवार नहीं चला सकता।
पद्मसिंह– तुम्हें इसमें क्या आपत्ति है कि दोनों बहनें एक अलग मकान में ठहरा दी जाएं?
सदन ने गर्म होकर कहा– ऐसा तो मैं तब करूंगा, जब मुझे छिपाना हो। मैं कोई पाप करने नहीं जा रहा हूं, जो उसे छिपाऊं? वह मेरे जीवन का परम कर्त्तव्य है, उसे गुप्त रखने की आवश्यकता नहीं है। अब वह विवाह के जो संस्कार नहीं पूरे हुए हैं, कल गंगा के किनारे पूरे किए जाएंगे। यदि आप वहां आने की कृपा करेंगे, तो मैं अपना सौभाग्य समझूंगा, नहीं तो ईश्वर के दरबार में गवाहों के बिना भी प्रतिज्ञा हो जाती है।
यह कहता हुआ सदन उठा और घर में चला गया। सुभद्रा ने कहा– वाह, खूब गायब होते हो। सारी रात जी लगा रहा। कहां रह गए थे?
सदन ने रात का वृत्तांत चाची से कहा। चाची से बातचीत करने में उसे वह झिझक न होती थी, जो शर्माजी से होती थी। सुभद्रा ने उसके साहस की बड़ी प्रशंसा की, बोली– मां-बाप के डर से कोई ब्याहता को थोड़े ही छोड़ देता है। दुनिया हंसेगी तो हंसा करे। उसके डर से अपने घर के प्राणी की जान ले लें? तुम्हारी अम्मा से डरती हूं, नहीं तो उसे यहीं रखती।
सदन ने कहा– मुझे अम्मा-दादा की परवाह नहीं है?
सुभद्रा– बहुत परवाह तो की। इतने दिनों तक बेचारी को घुला-घुला के मार डाला। कोई दूसरा लड़का होता, तो पहले दिन ही फटकार देता। तुम्हीं हो कि इतना सहते हो।
सुभद्रा, यही बातें यदि तुमने पवित्र भाव से कहीं होतीं, तो हम तुम्हारा कितना आदर करते! किन्तु तुम इस समय ईर्ष्या-द्वेष के वश में हो। तुम सदन को उभारकर अपनी जेठानी को नीचा दिखाना चाहती हो। तुम एक माता के पवित्र हृदय पर आघात करके उसका आनंद उठा रही हो।
सदन के चले जाने पर विट्ठलदास ने पद्मसिंह से कहा– यह तो आपके मन की बात हुई। आप इतना आगा-पीछा क्यों करते हैं? शर्माजी ने उत्तर नहीं दिया।
विट्ठलदास फिर बोले– यह प्रस्ताव आपको स्वयं करना चाहिए था, लेकिन आप अब उसे स्वीकार करने में संकोच कर रहे हैं।
शर्माजी ने इसका भी उत्तर नहीं दिया।
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