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सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


विट्ठलदास– अगर वह अपनी स्त्री के साथ अलग रहे तो क्या हानि है? आप न अपने साथ रखेंगे, न अलग रखने देंगे, यह कौन-सी नीति है?

पद्मसिंह ने व्यंग्य भाव से कहा– भाई साहब, जब अपने ऊपर पड़ती है, तभी आदमी जानता है। जैसे आप मुझे राह दिखा रहे हैं, इसी प्रकार मैं भी दूसरों को राह दिखाता रहता हूं। आप भी कभी वेश्याओं का उद्धार करने के लिए कैसी-लंबी-चौड़ी बातें करते थे, लेकिन जब काम का समय आया, तो कन्नी काट गए। इसी तरह दूसरों को भी समझ लीजिए। मैं सब कुछ कर सकता हूं, पर अपने भाई को नाराज नहीं कर सकता। मुझे कोई सिद्धांत इतना प्यारा नहीं है, जो मैं उनकी इच्छा पर न्योछावर न कर सकूं।

विट्ठलदास– मैंने आपसे कभी नहीं कहा कि जन्म की वेश्याओं को देवियां बना दूंगा। क्या आप समझते हैं कि उसी स्त्री में, जो अपने घर वालों के अन्याय या दुर्जनों के बहकाने से पतित हो जाती है और जन्म की वेश्याओं में कोई अंतर नहीं है? मेरे विचार में उनमें उतना ही अंतर है, जितना साध्य और असाध्य रोग में है। जो आग अभी लगी है और अंदर तक नहीं पहुंचने पाई, उसे आप शांत कर सकते हैं, लेकिन ज्वालामुखी पर्वत को शांत करने की चेष्टा पागल करे तो करे, बुद्धिमान् कभी नहीं कर सकता।

शर्माजी– कम-से-कम आपको मेरी सहायता तो करनी चाहिए थी। आप मगर एक घंटे के लिए मेरे साथ दालमंडी चलें, तो आपको मालूम हो जाएगा कि जिसे आप सब ज्वालामुखी पर्वत समझ बैठे हैं, वह केवल बुझी हुई आग का ढेर है। अच्छे और बुरे आदमी सब जगह होते हैं। वेश्याएं भी इस नियम से बाहर नहीं हैं। आपको यह देखकर आश्चर्य होगा कि उनमें धार्मिक श्रद्धा, पाप-जीवन से कितनी घृणा, अपने जीवनोद्धार की कितनी अभिलाषा है। मुझे स्वयं इस पर आश्चर्य होता है। उन्हें केवल एक सहारे की आवश्यकता है, जिसे पकड़कर वह बाहर निकल आएं। पहले तो वह मुझसे बात तक न करती थीं, लेकिन जब मैंने उन्हें समझाया कि मैंने वह प्रस्ताव तुम्हारे उपकार के लिए किया, जिसमें तुम दुराचारियों, दुष्टों और कुमार्गियों की पहुंच से बाहर रह सको, तो उन्हें मुझ पर कुछ-कुछ विश्वास होने लगा। नाम तो न बताऊंगा, लेकिन कई धनी वेश्याएं धन से मेरी सहायता करने को तैयार हैं। कई अपनी लड़कियों का विवाह करना चाहती हैं। लेकिन अभी उन औरतों की संख्या बहुत है, जो भोग-विलास के इस जीवन को छोड़ना नहीं चाहती हैं। मुझे आशा है कि स्वामी गजानन्द के उपदेश का कुछ-न-कुछ फल अवश्य होगा। खेद यही है कि कोई मेरी सहायता करने वाला नहीं है। हां, मजाक उड़ाने वाले ढेरों पड़े हैं। इस समय एक ऐसे अनाथालय की आवश्यकता है, जहां वेश्याओं की लड़कियां रखी जा सकें और उनकी शिक्षा का उत्तम प्रबंध हो। पर मेरी कौन सुनता है?

विट्ठलदास ने यें बातें बड़े ध्यान से सुनी। पद्मसिंह ने जो कुछ कहा था, वह उनका अनुभव था, और अनुभवपूर्ण बातें सदैव विश्वासोत्पादक हुआ करती हैं, विट्ठलदास को ज्ञात होने लगा कि मैं जिस कार्य को असाध्य समझाता था, वह वास्तव में ऐसा नहीं है। बोले– अनिरुद्धसिंह से आपने इस विषय में कुछ नहीं कहा?

शर्माजी– वहां लच्छेदार बातों और तीव्र समालोचनाओं के सिवा और क्या रखा है?

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