उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
361 पाठक हैं |
यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
५०
सदनसिंह का विवाह संस्कार हो गया। झोंपड़ा खूब सजाया गया था। वही मंडप का काम दे रहा था, लेकिन कोई भीड़-भाड़ न थी।
पद्मसिंह उस दिन घर चले गए और मदनसिंह से सब समाचार कहा। वह यह सुनते ही आग हो गए, बोले– मैं उस छोकरे का सिर काट लूंगा, वह अपने को समझता क्या है? भाभी ने कहा– मैं आज ही जाती हूं उसे समझाकर अपने साथ लिवा लाऊंगी! अभी नादान लड़का है। उस कुटनी सुमन की बातों में आ गया है। मेरा कहना वह कभी न टालेगा।
लेकिन मदनसिंह ने भामा को डांटा और धमकाकर कहा– अगर तुमने उधर जाने का नाम लिया, तो मैं अपना और तुम्हारा गला एक साथ घोंट दूंगा। वह आग में कूदता है, कूदने दो। ऐसा दूध पीता नादान बच्चा नहीं। यह सब उसकी जिद है। बच्चू को भीख मंगाकर न छोड़ूं तो कहना। सोचते होंगे, दादा मर जाएंगे तो आनंद करूंगा। मुंह धो रखें, यह कोई मौरूमी जायदाद नहीं है। यह मेरी अपनी कमाई है। सब-की-सब कृष्णापर्ण कर दूंगा। एक फूटी कौड़ी तो मिलेगी नहीं।
गांव में चारों ओर बतकहाव होने लगा। लाला बैजनाथ को निश्चय हो गया कि संसार से धर्म उठ गया। जब लोग ऐसे-ऐसे नीच कर्म करने लगे, तो धर्म कहां रहा? न हुई नवाबी, नहीं तो आज बच्चू की धज्जियां उड़ जातीं। अब देखें, कौन मुंह लेकर गांव में आते हैं?
पद्मसिंह रात को बहुत देर तक भाई के साथ बैठे रहे, लेकिन ज्योंही वह सदन का कुछ जिक्र छेड़ते, मदनसिंह उनकी ओर ऐसी आग्नेय दृष्टि से देखते कि उन्हें बोलने की हिम्मत न पड़ती। अंत में जब वह सोने चले, तो पद्मसिंह ने हताश होकर कहा– भैया, सदन आपसे अलग रहे, तब भी आपका लड़का ही कहलाएगा। वह जो कुछ नेकबद करेगा, उसकी बदनामी हम सब पर आएगी। जो लोग इस अवस्था को भली-भांति जानते हैं, वह चाहे हम लोगों को निर्दोष समझें, लेकिन जनता सदन में और हममें कोई भेद नहीं कर सकती, तो इससे क्या फायदा कि सांप भी न मरे और लाठी भी टूट जाए। एक ओर दो बुराइयां हैं– बदनामी भी होती है और लड़का भी हाथ से जाता है। दूसरी ओर एक ही बुराई है, बदनामी होगी, लेकिन लड़का अपने हाथ में रहेगा। इसलिए मुझे तो यही उचित जान पड़ता है कि हम लोग सदन को समझाएं और यदि वह किसी तरह न माने तो...
मदनसिंह ने बात काटकर कहा– तो उस चुड़ैल से उसका विवाह ठान दें? क्यों, यही न कहना चाहते हो? यह मुझसे न होगा। एक बार नहीं, हजार बार नहीं।
यह कहकर वह चुप हो गए। एक क्षण के बाद पद्मसिंह को लांछित कर बोले– आश्चर्य यह है कि यह सब तुम्हारे सामने हुआ और तुम्हें जरा भी खबर न हुई।
|