उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
उसने नाव ली, झोंपड़ा बनाया, दोनों चुड़ैलों से सांठ-गांठ की और तुम आंखें बंद किए बैठे रहे। मैंने तो उसे तुम्हारे ही भरोसे भेजा था। यह क्या जानता था कि तुम कान में तेल डाले बैठे रहते हो। अगर तुमने जरा भी चतुराई से काम लिया होता, तो यह नौबत न आती। तुमने इन बातों की सूचना तक मुझे न दी, नहीं तो मैं स्वयं जाकर उसे किसी उपाय से बचा लाता। अब जब सारी गोटियां पिट गईं, सारा खेल बिगड़ गया, तो चले हो वहां से मुझसे सलाह लेने। मैं साफ-साफ कहता हूं कि तुम्हारी आनाकानी से मुझे तुम्हारे ऊपर भी संदेह होता है। तुमने जान-बूझकर उसे आग में गिरने दिया। मैंने तुम्हारे साथ बहुत बुराइयां की थीं, उनका तुमने बदला लिया। खैर, कल प्रातःकाल एक दान-पत्र लिख दो। तीन पाई जो मौरूमी जमीन है, उसे छोड़कर मैं अपनी सब जायदाद कृष्णार्पण करता हूं, यह न लिख सको तो वहां से लिखकर भेज देना। मैं दस्तखत कर दूंगा और उसकी रजिस्ट्री हो जाएगी।
यह कहकर मदनसिंह सोने चले गए। लेकिन पद्मसिंह के मर्म-स्थान पर ऐसा वार कर गए कि वह रात-भर तड़पते रहे। जिस अपराध से बचने के लिए उन्होंने अपने सिद्धांत की भी परवाह न की और अपने सहवर्गियों में बदनाम हुए, वह अपराध लग ही गया। इतना ही नहीं, भाई के हृदय में उनकी ओर से मैल पड़ गई। अब उन्हें अपनी भूल दिखाई दे रही थी। निःसंदेह अगर उन्होंने बुद्धिमानी से काम लिया होता, तो यह नौबत न आती। लेकिन इस वेदना में इस विचार से कुछ संतोष होता था कि जो कुछ हुआ सो हुआ, एक अबला का उद्धार तो हो गया।
प्रातःकाल जब वह घर से चलने लगे, तो भामा रोती हुई आई और बोली– भैया, इनका हठ तो देख रहे हो, लड़के की जान लेने पर उतारू हैं, लेकिन तुम जरा सोच समझकर काम करना। भूल-चूक तो बड़ों-बड़ों से हो जाती है, वह बेचारा तो अभी नादान लड़का है। तुम उसकी ओर से मन न मैला करना। उसे किसी की टेढ़ी निगाह भी सहन नहीं है। ऐसा न हो, कहीं देश-विदेश की राह ले, मैं तो कहीं की न रहूं। उसकी सुध लेते रहना। खाने-पीने की तकलीफ न होने पाए। यहां रहता था तो एक भैंस का दूध पी जाता था। उसे दाल में घी अच्छा नहीं लगता, लेकिन मैं उससे छिपाकर लौंदे-के-लौंदे दाल में डाल देती थी। अब इतना सेवा-जतन कौन करेगा? न जाने बेचारा कैसे होगा? यहां घर पर कोई खाने वाला नहीं, वहां वह इन्हीं चीजों के लिए तरसता होगा। क्यों भैया, क्या अपने हाथ से नाव चलाता है?
पद्मसिंह-नहीं, दो मल्लाह रख लिए हैं।
भामा– तब भी दिन-भर दौड़-धूप तो करनी ही पड़ती होगी, मजूर बिना देखे-भाले थोड़ी ही काम करते हैं। मेरा तो यहां कुछ बस नहीं है, उसे तुम्हें सौंपती हूं। उसे अनाथ समझकर खोज-खबर लेते रहना। मेरा रोआं-रोआं तुम्हें आशीर्वाद देगा। अब की कार्तिक-स्नान में मैं उसे जरूर देखने जाऊंगी। कह देना, तुम्हारी अम्मा तुम्हें बहुत याद करती थीं, बहुत रोती थीं, यह सुनकर उसे ढाढस हो जाएगा। उसका जी बड़ा कच्चा है। मुझे याद करके रोज रोता होगा। यह थोड़े-से रुपए हैं, लेते जाओ, उसके पास भिजवा देना।
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