उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
पद्मसिंह– इसकी क्या जरूरत है? मैं तो वहां हूं ही, मेरे देखते उसे किसी बात की तकलीफ न होने पाएगी।
भामा– नहीं, भैया, लेते जाओ, क्या हुआ! इस हांड़ी में थोड़ा-सा घी है, यह भी भिजवा देना! बाजारू घी घर के घी को कहां पाता है, न वह सुगंध है, न वह स्वाद। उसे अमावट की चटनी बहुत अच्छी लगती है, मैं थोड़ी-सी अमावट भी रखे देती हूं। मीठे-मीठे आम चुनकर रस निकाला था। समझाकर कह देना, बेटा, कोई चिंता मत करो। जब तक तुम्हारी मां जीती है तुमको कोई कष्ट न होने पाएगा। मेरे तो वही एक अंधे की लकड़ी है। अच्छा है तो, बुरा है तो, अपना ही है। संसार की लाज से आंखों से चाहे दूर कर दूं। लेकिन मन से थोड़े ही दूर कर सकती हूं।
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जैसे सुंदर भाव के समावेश से कविता में जान पड़ जाती है और सुंदर रंगों से चित्र में, उसी प्रकार दोनों बहनों के आने से झोंपड़ी में जान आ गई। अंधी आंखों में पुतलियां पड़ गई हैं।
मुर्झाई हुई कली शान्ता अब खिलकर अनुपम शोभा दिखा रही है। सूखी हुई नदी उमड़ पड़ी है। जैसे जेठ-बैसाख की तपन की मारी हुई गाय सावन में निखर जाती है और खेतों में किलोलें करने लगती है, उसी प्रकार विरह की सताई हुई रमणी अब निखर गई है, प्रेम में मग्न है।
नित्यप्रति प्रातःकाल इस झोंपड़े से दो तारे निकलते हैं और जाकर, गंगा में डूब जाते हैं। उनमें से एक बहुत दिव्य और द्रुतगामी है, दूसरा मध्यम और मंद। एक नदी में थिरकता है, दूसरा अपने वृत्त से बाह नहीं निकलता। प्रभात की सुनहरी किरणों में इन तारों का प्रकाश मंद नहीं होता, वे और भी जगमगा उठते हैं।
शान्ता गाती है, सुमन खाना पकाती है। शान्ता केशों को संवारती है, सुमन कपड़े सीती है। शान्ता भूखे मनुष्य के समान भोजन के थाल पर टूट पड़ती है, सुमन किसी रोगी के सदृश सोचती है कि मैं अच्छी हूंगी या नहीं।
सदन के स्वभाव में अब कायापलट हो गया है। वह प्रेम का आनंदभोग करने में तन्मय हो रहा है। वह अब दिन चढ़े उठता है, घंटों नहाता है, बाल संवारता है, कपड़े बदलता, सुगंध मलता है, नौ बजे से पहले अपनी बैठक में नहीं आता और आता भी है तो जमकर बैठता नहीं, उसका मन कहीं और रहता है। एक-एक पल में भीतर जाता है और अगर बाहर से बात करने में देर हो जाती है, तो उकताने लगता है। शान्ता ने उस पर वशीकरण मंत्र डाल दिया है।
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