उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
सुमन घर का सारा काम भी करती है और बाहर का भी। वह घड़ी रात रहे उठती और स्नान-पूजा के बाद सदन के लिए जलपान बनाती है। फिर नदी के किनारे आकर नाव खुलवाती है। नौ बजे भोजन बनाने बैठ जाती है। ग्यारह बजे तक यहां से छुट्टी पाकर वह कोई-न-कोई काम करने लगती है। नौ बजे रात को जब लोग सोने चले जाते हैं, तो वह पढ़ने बैठ जाती है। तुलसी की विनय-पत्रिका और रामायण से उसे बहुत प्रेम है। कभी भक्तमाल पढ़ती है, कभी विवेकानंद के व्याख्यान और कभी रामतीर्थ के लेख। वह विदुषी स्त्रियों के जीवन-चरित्रों को बड़े चाव से पढ़ती है। मीरा पर उसे असीम श्रद्धा है। वह बहुधा ग्रंथ ही पढ़ती है। लेकिन ज्ञान की अपेक्षा भक्ति में उसे शांति मिलती है।
मल्लाहों की स्त्रियों में उसका बड़ा आदर है। वह उनके झगड़े चुकाती है। किसी के बच्चे के लिए कुर्त्ता-टोपी सीती है, किसी के लिए अंजन या घुट्टी बनाती है। उनमें कोई बीमार पड़ता है, तो उसके घर जाती है और दवा-दारू की फिक्र करती है। वह अपनी गिरी दीवार को उठा रही है। उस बस्ती के सभी नर-नारी उसकी प्रशंसा करते हैं और उसका यश गाते हैं, हां, अगर आदर नहीं है, तो अपने घर में। सुमन इस तरह जी तोड़कर घर का सारा बोझ संभाले हुए है, लेकिन सदन के मुंह से कृतज्ञता का एक शब्द भी नहीं निकलता। शान्ता भी उसके इस परिश्रम का कुछ मूल्य नहीं समझती। दोनों-के-दोनों उनकी ओर से निश्चिंत हैं, मानो वह घर की लौंडी है और चक्की में जुते रहना ही उसका धर्म है। कभी-कभी उसके सिर में दर्द होने लगता है, कभी-कभी दौड़-धूप से बुखार चढ़ जाता है, तब भी वह घर का सारा काम रीत्यानुसार करती रहती है। वह भी कभी-कभी एकांत में अपनी इस दीन दशा पर घंटों रोती रहती है, पर कोई ढाढस देने वाला, कोई आंसू पोंछने वाला नहीं?
सुमन स्वभाव से भी मानिनी, सगर्वा स्त्री थी। वह जहां कहीं रही थी, रानी बनकर रही थी। अपने पति के घर वह सब कष्ट झेलकर भी रानी थी। विलासनगर में वह जब तक रही, उसी का सिक्का चलता रहा। आश्रम में वह सेवा-धर्म पालन करके सर्वमान्य बनी हुई थी। इसलिए अब यहां इस हीनावस्था में रहना उसे असह्य था। अगर सदन कभी-कभी उसकी प्रशंसा कर दिया करता, कभी उससे सलाह लिया करता, उसे अपने घर की स्वामिनी समझा करता या शान्ता उसके पास बैठकर उसकी हां में हां मिलाती, उसका मन बहलाती, तो सुमन इससे भी अधिक परिश्रम करती और प्रसन्नचित्त रहती। लेकिन उन दोनों प्रेमियों को अपनी तरंग में और कुछ न सूझता था। निशाना मारते समय दृष्टि केवल एक ही वस्तु पर रहती है। प्रेमासक्त मनुष्य का भी यही होता है।
लेकिन शान्ता और सदन की यह उदासीनता प्रेम-लिप्सा के ही कारण थी, इसमें संदेह है। सदन इस प्रकार सुमन से बचता था, जैसे हम कुष्ठ-रोगी से बचते हैं, उस पर दया करते हुए भी उसके समीप जाने की हिम्मत नहीं रखते। शान्ता उस पर अविश्वास करती थी, उसके रूप-लावण्य से डरती थी। कुशल यही था कि सदन स्वयं सुमन से आंखें चुराता था, नहीं तो शान्ता इससे जल ही जाती। अतएव दोनों चाहते थे कि यह आस्तीन का सांप दूर हो जाए, लेकिन संकोचवश वह आपस में भी इस विषय को छेड़ने से डरते थे।
सुमन पर यह रहस्य शनैः शनैः खुलता जाता था।
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