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सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


एक बार जीतन कहार शर्माजी के यहां से सदन के लिए कुछ सौगात लाया था। इसके पहले भी वह कई बार आया था, लेकिन उसे देखते ही सुमन छिप जाया करती थी। अब की जीतन की निगाह उस पर पड़ गई। फिर क्या था, उसके पेट में चूहे दौड़ने लगे। वह पत्थर खाकर पचा सकता था, पर कोई बात पचाने की शक्ति उसमें न थी। मल्लाहों के चौधरी के पास चिलम पीने के बहाने गया और सारी रामकहानी सुना आया। अरे यह तो कस्बीन है, खसम ने घर से निकाल दिया, तो हमारे यहां खाना पकाने लगी, वहां से निकाली गई तो चौक में हरजाईपन करने लगी, अब देखता हूं तो यहां विराजमान है। चौधरी सन्नाटे में आ गया, मल्लाहिनों में भी इशारेबाजियां होने लगीं। उस दिन से कोई मल्लाह सदन के घर का पानी न पीता, उनकी स्त्रियों ने सुमन के पास आना-जाना छोड़ दिया। इसी तरह एक बार लाला भगतराम ईंटों की लदाई का हिसाब करने आए। प्यास मालूम हुई तो मल्लाह से पानी लाने को कहा। मल्लाह कुएं से पानी लाया। सदन के घर में बैठे हुए बाहर से पानी मंगाकर पीना सदन की छाती में छुरी मारने से कम न था।

अंत में दूसरा साल जाते-जाते यहां तक नौबत पहुंची कि सदन जरा-जरा-सी बात पर सुमन से झुंझला जाता और चाहे कोई लागू बात न कह, पर उसके मन के भाव झलक ही पड़ते थे।

सुमन को मालूम हो रहा था कि अब मेरा निर्वाह यहां न होगा। उसने समझा था कि यहां बहन-बहनोई के साथ जीवन समाप्त हो जाएगा। उनकी सेवा करूंगी, टुकड़ा खाऊंगी और एक कोने में पड़ी रहूंगी। इसके अतिरिक्त जीवन में अब उसे कोई लालसा नहीं थी, लेकिन हा शोक यह तख्ता भी उसके पैरों के नीचे से सरक गया और अब वह निर्दयी लहरों की गोद में थी।

लेकिन सुमन को अपनी परिस्थिति पर दुख चाहे कितना ही हुआ हो, उसे सदन या शान्ता से कोई शिकायत न थी। कुछ तो धार्मिक प्रेम और कुछ अपनी अवस्था के वास्तविक ज्ञान ने उसे अत्यंत नम्र, विनीत बना दिया था। वह बहुत सोचती थी कि वहां जाऊं, जहां अपनी जान-पहचान का कोई आदमी न हो, लेकिन उसे ऐसा कोई ठिकाना न दिखाई देता। अभी तक उसकी निर्बल आत्मा कोई अवलंब चाहती थी। बिना किसी सहारे संसार में रहने का विचार करके उसका कलेजा कांपने लगता था। वह अकेली असहाय, संसार-संग्राम में आने का साहस न कर सकती थी। जिस संग्राम में बड़े-बड़े, कुशल, धर्मशील, दृढ़ संकल्प मनुष्य मुंहकी खाते हैं, वहां मेरी क्या गति होगी। कौन मेरी रक्षा करेगा। कौन मुझे संभालेगा। निरादर होने पर भी यह शंका उसे यहां से निकलने न देती थी।

एक दिन सदन दस बजे कहीं से घूमकर आया और बोला– भोजन में अभी कितनी देर है, जल्दी करो मुझे पंडित उमानाथ से मिलने जाना है, चचा के यहां आए हुए हैं।

शान्ता ने पूछा– वह वहां कैसे आए?

सदन– अब यह मुझे क्या मालूम? अभी जीतन आकर कह गया कि वह आए हुए हैं और आज ही चले जाएंगे। यहां आना चाहते थे, लेकिन (सुमन की ओर इशारा करके) किसी कारण से नहीं आए।

शान्ता– तो जरा बैठ जाओ, यहां अभी एक घंटे की देर है।

सुमन ने झुंझलाकर कहा– देर क्या है, सब कुछ तो तैयार है। आसन बिछा दो, पानी रख दो, मैं थाली परोसती हूं।

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