उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
शान्ता– अरे, तो जरा ठहर जाएंगे तो क्या होगा? कोई डाकगाड़ी छूटी जाती है? कच्चा-पका खाने का क्या काम?
सदन– मेरी समझ में नहीं आता कि दिन-भर क्या होता रहता है? जरा-सा भोजन बनाने में इतनी देर हो जाती है।
सदन जब भोजन करके चला गया, तब सुमन ने शान्ता से पूछा– क्यों शान्ता, सच बता, तुझे मेरा यहां रहना अच्छा नहीं लगता? तेरे मन में जो कुछ है, वह मैं जानती हूं, लेकिन तू जब तक अपने मुंह से मुझे दुत्कार न देगी, मैं जाने का नाम न लूंगी। मेरे लिए कहीं ठिकाना नहीं है।
शान्ता– बहन, कैसी बात कहती हो। तुम रहती हो तो घर संभला हुआ है, नहीं तो मेरे किए क्या होता?
सुमन– यह मुंह देखी बात मत करो, मैं ऐसी नादान नहीं हूं। मैं तुम दोनों को अपनी ओर से कुछ खिंचा हुआ पाती हूं।
शान्ता– तुम्हारी आंखों की क्या बात है, वह तो मन की बात देख लेती हैं।
सुमन– आंखें सीधी करके बोलो, जो मैं बोलती हूं, झूठ है?
शान्ता– जब तुम जानती हो, तो पूछती क्यों हो?
सुमन– इसलिए कि सब कुछ देखकर भी आंखों पर विश्वास नहीं आता। संसार मुझे कितना ही नीच समझे, मुझे उससे कोई शिकायत नहीं है। वह मेरे मन का हाल नहीं जानता, लेकिन तुम तो सब कुछ देखते हुए भी मुझे नीच समझती हो, इसका आश्चर्य है। मैं तुम्हारे साथ लगभग दो वर्ष से हूं, इतने दिनों में तुम्हें मेरे चरित्र का परिचय अच्छी तरह हो गया होगा।
शान्ता– नहीं बहन, मैं परमात्मा से कहती हूं, यह बात नहीं है। हमारे ऊपर इतना बड़ा कलंक मत लगाओ। तुमने मेरे साथ जो उपकार किए हैं वह मैं कभी न भूलूंगी।
लेकिन बात यह है कि उनकी बदनामी हो रही है। लोग मनमानी बातें उड़ाया करते हैं। वह (सदनसिंह) कहते थे कि सुभद्राजी यहां आने को तैयार थीं, लेकिन तुम्हारे रहने की बात सुनकर नहीं आईं और बहन, बुरा न मानना, जब संसार में यही प्रथा चल रही है, तो हम लोग क्या कर सकते हैं?
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