उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
सुमन ने विवाद न किया। उसे आज्ञा मिल गई। अब केवल एक रुकावट थी। शान्ता थोड़े ही दिनों में बच्चे की मां बनने वाली थी। सुमन ने अपने मन को समझाया; इस समय छोड़कर जाऊंगी तो इसे कष्ट होगा। कुछ दिन और सह लूं। जहां इतने दिन काटे हैं, महीने-दो महीने और सही। मेरे ही कारण यह इस विपत्ति में फंसे हुए हैं। ऐसी अवस्था में इन्हें छोड़कर जाना मेरा धर्म नहीं है।
सुमन का यहां एक-एक दिन एक-एक साल की तरह कटता था, लेकिन सब्र किए पड़ी हुई थी।
पंखहीन पक्षी पिंजरबद्ध रहने में अपनी कुशल समझता है।
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पंडित पद्मसिंह के चार-पांच मास के सदुद्योग का यह फल हुआ कि बीस-पच्चीस वेश्याओं ने अपनी लड़कियों को अनाथालय में भेजना स्वीकार कर लिया। तीन वेश्याओं ने अपनी सारी संपत्ति अनाथालय के निमित्त अर्पण कर दी, पांच वेश्याएं निकाह करने पर राजी हो गईं। सच्ची हिताकांक्षा कभी निष्फल नहीं होती। अगर समाज में विश्वास हो जाए कि आप उसके सच्चे सेवक हैं, आप उसका उद्धार करना चाहते हैं, आप निःस्वार्थ हैं, तो वह आपके पीछे चलने को तैयार हो जाता है। लेकिन यह विश्वास सच्चे सेवाभाव के बिना कभी प्राप्त नहीं होता। जब तक अंतःकरण दिव्य और उज्ज्वल न हो, वह प्रकाश का प्रतिबिंब दूसरों पर नहीं डाल सकता। पद्मसिंह में सेवाभाव का उदय हो गया था। हममें कितने ही ऐसे सज्जन हैं, जिनके मस्तिष्क में राष्ट्र की कोई सेवा करने का विचार उत्पन्न होता है, लेकिन बहुधा वह विचार ख्याति-लाभ की आकांक्षा से प्रेरित होता है, हम वह काम करना चाहते हैं, जिसमें हमारा नाम प्राणि-मात्र की जिह्वा पर हो, कोई ऐसा लेख अथवा ग्रंथ लिखना चाहते हैं, जिसकी लोग मुक्त कंठ से प्रशंसा करें, और प्रायः हमारे इस स्वार्थ का कुछ-न-कुछ बदला भी हमको मिल जाता है, लेकिन जनता के हृदय में हम-घर नहीं कर सकते। कोई मनुष्य, चाहे वह कितने ही दुख में हो, उस व्यक्ति के सामने अपना शोक प्रकट नहीं करना चाहता, जिसे वह अपना सच्चा मित्र समझता हो। पद्मसिंह को अब दालमंडी में जाने का बहुत अवसर मिलता था और वह वेश्याओं के जीवन का जितना भी अनुभव करते थे, उतना ही उन्हें दुख होता था। ऐसी-ऐसी सुकोमल रमणियों को भोग-विलास के लिए अपना सर्वस्व गंवाते देखकर उनका हृदय करुणा से विह्वल हो जाता था, उनकी आंखों से आंसू निकल पड़ते थे। उन्हें अब ज्ञात हो रहा था कि ये स्त्रियां विचारशून्य नहीं, भावशून्य नहीं, बुद्धिहीन नहीं, लेकिन माया के हाथों में पड़कर उनकी सारी सद्वृत्तियां उल्टे मार्ग पर जा रही हैं, तृष्णा ने उनकी आत्माओं को निर्बल, निश्चेष्ट बना दिया है। पद्मसिंह इस मायाजाल को तोड़ना चाहते थे, वह उन भूली हुई आत्माओं को सचेत किया चाहते थे, वह उनको इस अज्ञानावस्था से मुक्त किया चाहते थे, पर मायाजाल इतना दृढ़ था और अज्ञान-बंधन इतना पुष्ट और निद्रा इतनी गहरी थी कि पहले छह महीनों में उससे अधिक सफलता न हो सकी, जिसका ऊपर वर्णन किया जा चुका है। शराब के नशे में मनुष्य की जो दशा हो जाती वही दशा इन वेश्याओं की हो गई थी।
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