उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
भोजन करके जब विश्राम करते, तो भामा से सदन की बातें करने लगते– यह लौंडा लड़कपन में भी जिद्दी था। जिस वस्तु के लिए अड़ जाता था, उसे लेकर ही छोड़ता था। तुम्हें याद आता होगा, एक बार मेरी पूजा की झोली के बस्ते के वास्ते कितना महनामथ मचाया और उसे लेकर ही चुप हुआ। बड़ा हठी है, देखो तो उसकी कठोरता। एक पत्र भी नहीं भेजता। चुपचाप कान में तेल डाले बैठा है, मानों हमलोग मर गए हैं। भामा ये बातें सुनती और रोती। मदनसिंह के आत्माभिमान ने पुत्र-प्रेम के आगे सिर झुका दिया था।
इस प्रकार एक वर्ष के ऊपर हो गया। मदनसिंह बार-बार सदन के पास जाने का विचार करते, पर उस विचार को कार्य रूप में न ला सकते। एक बार असबाब बंधवा चुके थे, पर थोड़ी देर पीछे उसे खुलवा दिया। एक बार स्टेशन से लौट आए। उनका हृदय मोह और अभिमान का खिलौना बना हुआ था।
अब गृहस्थी के कामों में उनका जी न लगता। खेतों में समय पर पानी नहीं दिया गया और फसल खराब हो गई। असामियों से लगान नहीं वसूल किया गया। वह बेचारे रुपए लेकर आते, लेकिन मदनसिंह को रुपया लेकर रसीद देना भारी था। कहते, भाई, अभी जाओ, फिर आना। गुड़ घर में धरा-धरा पसीज गया, उसे बेचने का प्रबंध न किया। भामा कुछ कहती तो झुंझलाकर कहते, चूल्हे में जाए घर और द्वार, जिसके लिए सब कुछ करता था, जब वही नहीं है तो यह गृहस्थी मेरे किस काम की है? अब उन्हें ज्ञात हुआ कि मेरा सारा जीवन, सारी धर्मनिष्ठा, सारी कर्मशीलता, सारा आनंद केवल एक आधार पर अवलंबित था और वह आधार सदन का था।
इधर कई दिनों से पद्मसिंह भी नहीं आए थे। एक बड़ा कार्य संपादन करने के उपरांत चित्त पर जो शिथिलता छा जाती है, वही अवस्था उनकी हो रही थी। मदनसिंह उनके पास भी पत्र न भेजते थे। हां, उनके पत्र आते तो बड़े शौक से पढ़ते, लेकिन सदन का कुछ समाचार न पाकर उदास हो जाते।
एक दिन मदनसिंह दरवाजे पर बैठे हुए प्रेमसागर पढ़ रहे थे। कृष्ण की बाल-लीला में उन्हें बच्चों का-सा आनंद आ रहा था। संध्या हो गई थी। सूझ न पड़ते थे, पर उनका मन ऐसा लगा हुआ था कि उठने की इच्छा न होती थी। अकस्मात् कुत्तों के भूंकने ने किसी नए आदमी के गांव में आने की सूचना दी। मदनसिंह की छाती धड़कने लगी। कहीं सदन तो नहीं आ रहा है। किताब बंद करके उठे, तो पद्मसिंह को आते देखा। पद्मसिंह ने उनके चरण छुए, फिर दोनों भाइयों में बातचीत होने लगी।
मदनसिंह– सब कुशल है?
पद्मसिंह– जी हां, ईश्वर की दया है।
मदनसिंह– भला, उस बेईमान की भी कुछ खोज-खबर मिली है?
पद्मसिंह– जी हां, अच्छी तरह है। दसवें-पांचवें दिन मेरे यहां आया करता है। मैं कभी-कभी हाल-चाल पुछवा लेता हूं। कोई चिंता की बात नहीं है।
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