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सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


कुछ वेश्याएं आपस मे कानाफूसी कर रही थीं। उनके चेहरों से मालूम होता था कि ये बातें उन्हें पसंद नहीं आती, लेकिन उन्हें कुछ बोलने का साहस न होता था छोटे विचार पवित्र भावों से सामने दब जाते हैं।

इसके बाद यह सभा समाप्त हुई और वेश्याओं ने पैदल अलईपुर की ओर प्रस्थान किया, जैसे यात्री किसी धाम का दर्शन करने जाते हैं।

दालमंडी में अंधेरा छाया हुआ था। न तबलों की थाप थी, न सारंगियों की अलाप, न मधुर स्वरों का गाना, न रसिकजनों का आना-जाना। अनाज कट जाने पर खेत की जो दशा हो जाती है, वही दालमंडी की हो रही थी।

५३

पंडित मदनसिंह की कई महीने तक यह दशा थी कि जो कोई उनके पास आता, उसी से सदन की बुराई करते-कपूत है, भ्रष्ट है, शोहदा है, लुच्चा है, एक कानी कौड़ी तो दूंगा नहीं, भीख मांगता फिरेगा, तब आटे-दाल का भाव मालूम होगा। पद्मसिंह को दानपत्र लिखाने के लिए कई बार लिखा। भामा कभी सदन की चर्चा करती, तो उससे बिगड़ जाते, घर से निकल जाने की धमकी देते, कहते– जोगी हो जाऊंगा, संन्यासी हो जाऊंगा, लेकिन उस छोकरे का मुंह न देखूंगा।

इसके पश्चात् उनकी मानसिक अवस्था में एक परिवर्तन हुआ। उन्होंने सदन की चर्चा ही करनी छोड़ दी। यदि कोई उसकी बुराई करता, तो कुछ अनमने-से हो जाते, कहते, भाई, अब क्यों उसे कोसते हो? जैसे उसने किया, वैसा आप भुगतेगा। अच्छा है या बुरा, मेरे पास से तो दूर है। अपने चार पैसे कमाता है, खाता है, पड़ा है, पड़ा रहने दो। लाला बैजनाथ उनके बहुत मुंह लगे थे। एक दिन वह खबर लाए कि उमानाथ ने सदन को कई हजार रुपए दिए हैं, अब नदी पार मकान बना रहा है, एक बागीचा लगवा रहा है। चूना पीसने की एक कल ली है, खूब रुपया कमाता है और उड़ाता है। मदनसिंह ने झुंझलाकर कहा– तो क्या चाहते हो कि वह भीख मांगे, दूसरों की रोटियां तोड़े? उमानाथ उसे रुपया क्या देंगे, अभी एक का चंदे से ब्याह किया है, आप टके-टके को मोहताज हो रहे हैं। सदन ने जो कुछ किया होगा, अपनी कमाई से किया होगा। वह लाख बुरा हो, निकम्मा नहीं है। अभी जवान है शौकीन है, अगर कमाता है और उड़ाता है, तो किसी को क्यों बुरा लगे? तुम्हारे इस गांव के कितने ही लौंड़े है, जो एक पैसा भी नहीं कमाते, लेकिन घर से रुपए चुराकर ले जाते हैं और चमारिनों का पेट भरते हैं। सदन उनसे कहीं अच्छा है। मुंशी बैजनाथ लज्जित हो गए।

कुछ काल उपरांत मदनसिंह की मनोवृत्ति पर प्रतिक्रिया का आधिपत्य हुआ। सदन की सूरत आंखों में फिरने लगी, उसकी बातें याद आया करती, कहते, देखो तो कैसा निर्दयी है, मुझसे रूठने चला है, मानों मैं यह जगह, जमीन, माल असबाब सब अपने माथे पर लादकर ले जाऊंगा। एक बार यहां आते नहीं बनता, पैरों में मेंहदी रचाए बैठा है! पापी कहीं का, मुझसे घमंड करता है, कुढ़-कुढ़कर मर जाऊंगा, तो बैठा मेरे नाम को रोएगा, तब भले वहां से दौड़ा आएगा, अभी नहीं आते बनता, अच्छा देखें, तुम कहां भागकर जाते हो, वहीं से चलकर तुम्हारी खबर लेता हूं।

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