उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
मदनसिंह ने मुंह बनाकर कहा– यह तुमने बुरी खबर सुनाई। क्या ईश्वर के दरबार में उल्टा न्याय होता है? मेरा बेटा छिन जाए और उसे बेटा मिल जाए। अब वह एक से दो हो गया, मैं उससे कैसे जीत सकूंगा? हारना पड़ा। यह मुझे अवश्य खींच ले जाएगा। मेरे तो कदम अभी से उखड़ गए। सचमुच ईश्वर के यहां बुराई करने पर भलाई होती है। उल्टी बात है कि नहीं? लेकिन अब मुझे चिंता नहीं है। सदन जहां चाहे जाए, ईश्वर ने हमारी सुन ली। कै दिन का हुआ है?
पद्मसिंह– आज चौथा दिन है, मुझे छुट्टी नहीं मिली, नहीं तो पहले ही दिन आता।
मदनसिंह– क्या हुआ, छठी तक पहुंच जाएंगे, धूमधाम से छठी मनाएंगे। बस, कल चलो।
भामा फूली न समाती थी। हृदय पुलकित हो उठा था। जी चाहता था कि किसे क्या दे दूं, क्या लुटा दूं? जी चाहता था, घर में सोहर उठे, दरवाजे पर शहनाई बजे, पड़ोसिनें बुलाई जाएं। गाने-बजाने की मंगल ध्वनि से गांव गूंज उठे। उसे ऐसा ज्ञात हो रहा था, मानो आज संसार में कोई असाधारण बात हो गई है, मानो सारा संसार संतानहीन है और एक मैं ही पुत्र-पौत्रवती हूं।
एक मजदूर ने आकर कहा– भौजी, एक साधु द्वार पर आए हैं। भामा ने तुरंत इतनी जिन्स भेज दी, जो चार साधुओं के खाने से भी न चुकती।
ज्योंही लोग भोजन कर चुके, भामा अपनी दोनों लड़कियों के साथ ढोल लेकर बैठ गई और आधी रात गाती रही।
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जिस प्रकार कोई मनुष्य लोभ के वश होकर आभूषण चुरा लेता है, पर विवेक होने पर उसे देखने में भी लज्जा आती है, उसी प्रकार सदन भी सुमन से बचता फिरता था। इतना ही नहीं, वह उसे नीची दृष्टि से देखता था और उसकी उपेक्षा करता था। दिन-भर काम करने के बाद संध्या को उसे अपना यह व्यवसाय बहुत अखरता, विशेषकर चूने के काम में उसे बड़ा परिश्रम करना पड़ता था। वह सोचता, इसी सुमन के कारण मैं यों घर से निकाला गया हूं। इसी ने मुझे यह बनवास दे रखा है। कैसे आराम से घर पर रहता था। न कोई चिंता थी, न कोई झंझट, चैन से खाता था और मौज करता था। इसी ने मेरे लिए सिर पर यह मुसीबत ढा दी। प्रेम की पहली उमंग में उसने उसका बनाया हुआ भोजन खा लिया था, पर अब उसे बड़ा पछतावा होता था। वह चाहता था कि किसी प्रकार इससे गला छूट जाए। यह वही सदन है, जो सुमन पर जान देता था, उसकी मुस्कान पर, मधुर बातों पर, कृपाकटाक्ष पर अपना जीवन तक न्योछावर करने को तैयार था। पर सुमन आज उसकी दृष्टि में इतनी गिर गई है। वह स्वयं अनुभव करके भी भूल जाता था कि मानव-प्रकृति कितनी चंचल है!
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