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सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


सदन ने इधर वर्षों से लिखना-पढ़ना छोड़ दिया था और जब से चूने की कल ली, तो वह दैनिक पत्र भी पढ़ने का अवकाश न पाता था। अब वह समझता था पढ़ना उन लोगों का काम है जिन्हें कोई काम नहीं है, जो सारे दिन-पड़े-पड़े मक्खियां मारा करते हैं। लेकिन उसे बालों को संवारने, हारमोनियम बजाने के लिए न मालूम कैसे अवकाश मिल जाता था।

कभी-कभी पिछली बातों का स्मरण करके वह मन में कहता, मैं उस समय कैसा मूर्ख था, इसी सुमन के पीछे लट्टू हो रहा था? वह अब अपने चरित्र पर घमंड करता था। नदी के तट पर वह नित्य स्त्रियों को देखा करता था, पर कभी उसके मन में कुभाव न पैदा होते थे। सदन इसे अपना चरित्रबल समझता था।

लेकिन जब गर्भिणी शान्ता के प्रसूति का समय निकट आया और वह बहुधा अपने कमरे में बंद, मलिन, शिथिल पड़ी रहने लगी, तो सदन को मालूम हुआ कि मैं बहुत धोखे में था। जिसे मैं चरित्रबल समझता था, वह वास्तव में मेरी तृष्णाओं के संतुष्ट होने का फलमात्र था। अब वह काम पर से लौटता, तो शान्ता मधुर मुस्कान के साथ उसका स्वागत न करती, वह अपनी चारपाई पर पड़ी रहती। कभी उसके सिर में दर्द होता, कभी शरीर में, कभी ताप चढ़ जाता, कभी मतली होने लगती, उसका मुखचंद्र कांतिहीन हो गया था, मालूम होता था शरीर में रक्त ही नहीं है। सदन को उसकी यह दशा देखकर दुख होता, यह घंटों उसके पास बैठकर उसका दिल बहलाता रहता, लेकिन उसके चेहरे से मालूम होता था कि उसे वहां बैठना अखर रहा है। वह किसी-न-किसी बहाने से जल्दी ही उठ जाता। उसकी विलास-तृष्णा ने मन को फिर चंचल करना शुरू किया, कुवासनाएं उठने लगीं। वह युवती मल्लाहिनों से हंसी करता, गंगातट पर जाता, तो नहाने वाली स्त्रियों को कुदृष्टि से देखता। यहां तक कि एक दिन इस वासना से विह्वल होकर वह दालमंडी की ओर चला। वह कई महीनों से इधर नहीं आया था। आठ बज गए थे। काम-भोग की प्रबल इच्छा उसे बढ़ाए लिए जाती थी। उसका ज्ञान और विवेक इस समय इस आवेग के नीचे दब गया था। वह कभी दो पग आगे चलता, कभी चुपचाप खड़ा होकर कुछ सोचता और पीछे फिरता, लेकिन दो-चार कदम चलकर वह फिर लौट पड़ता। इस समय उसकी दशा उस रोगी-सी हो रही थी, जो मीठे पदार्थ को सामने देखकर उस पर टूट पड़ता है और पथ्यापथ्य का विचार नहीं करता।

लेकिन जब वह दालमंडी में पहुंचा, तो गली में वह चहल-पहल न देखी, जो पहले दिखाई देती थी, पान वालों की दुकानें दो-चार थीं, लेकिन नानबाइयों और हलवाइयों की दुकानें बंद थीं। कोठों पर वेश्याएं झांकती हुई दिखाई न दीं, न सारंगी और तबले की ध्वनि सुनाई दी। अब उसे याद आया कि वेश्याएं यहां से चली गईं। उसका मन खिन्न हो गया। लेकिन एक क्षण में उसे एक विचित्र आनंद का अनुभव हुआ। उसने अपनी कामप्रवृत्ति पर विजय पा ली, मानो वह किसी कठोर सिपाही के हाथ से छूट गया। सिपाही उसे नीचे लिए जाता था, उसके पंजे से अपने को छुड़ा लेने का उसमें सामर्थ्य न था, पर थाने में पहुंचकर सिपाही ने देखा कि थाना बंद है, न थानेदार है, न कोई कांस्टेबिल, न चौकीदार। सदन को अब अपने मन की दुर्बलता पर लज्जा आई। उसे अपने मनोबल पर जो घमंड था, वह चूर-चूर हो गया।

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