उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
वह लौटना चाहता था, पर जी में आया कि आया हूं, तो अच्छी तरह से सैर क्यों न कर लूं? आगे बढ़ा तो वह मकान दिखाई दिया, जिसमें सुमन रहती थी। वहां गाने की मधुर ध्वनि उसके कान में आई। उसने आश्चर्य से ऊपर देखा, तो एक बड़ा साइनबोर्ड दिखाई दिया। उस पर लिखा था ‘संगीत-पाठशाला’। सदन ऊपर चढ़ गया। इसी कमरे में वह महीनों सुमन के पास बैठा था। उसके मन में कितनी ही पुरानी स्मृतियां आने लगीं। वह एक बेंच पर बैठ गया और गाना सुनने लगा। बीस-पच्चीस मनुष्य बैठे हुए गाने-बजाने का अभ्यास कर रहे थे। कोई सितार बजाता था, कोई सारंगी, कोई तबला और एक वृद्ध पुरुष उन सबको बारी-बारी से सिखा रहा था। वह गान विद्या में निपुण मालूम होता था। सदन का गाना सुनने में ऐसा मन लगा कि वह पंद्रह मिनट तक वहां बैठा रहा। उसके मन में बड़ी उत्कंठा हुई कि मैं भी गाना सीखने आया करता, पर एक तो उसका मकान यहां से बहुत दूर था, दूसरे स्त्रियों को अकेली छोड़कर रात को आना कठिन था। वह उठना ही चाहता था कि इतने में उसी गायनाचार्य ने सितार पर यह गाना शुरू किया–
तव वियोग से व्याकुल है मा, सत्वर धैर्य धराओ।
प्रिय लालन कहकर पुचकारो, हंसकर गले लगाओ।।
दयामयि भारत को अपनाओ।
सोये आर्य जाति के गौरव, जननि! फेर जगाओ।
दुखड़ा पराधीनता रूपी बेड़ी काट बहाओ।।
दयामयि भारत को अपनाओ।।
इस पद ने सदन के हृदय में उच्च भावों का स्रोत-सा खोल दिया। देशोपकार, जाति-सेवा तथा राष्ट्रीय गौरव की पवित्र भावनाएं उसके हृदय में गूंजने लगीं। यह बाह्य ध्वनि उसके अंतर में भी एक विशाल ध्वनि पैदा कर रही थी, जगज्जननी की दयामयी मूर्ति उसके हृदय-नेत्रों के सम्मुख खड़ी हो गई। एक दरिद्र, दुखी, दीन, क्षीण बालक दीन भाव से देवी की ओर ताक रहा था, और अपने दोनों हाथ उठाए, सजल आंखों से देखता हुआ कह रहा था, ‘दयामयि भारत को अपनाओ।’ उसने कल्पनाओं में अपने को दीन कृषकों की सेवा करते हुए देखा। वह जमींदारों के कारिंदों से विनय कर रहा था कि इन दीन जनों पर दया करो। कृषकगण उसके पैरों पर गिर पड़ते थे, उनकी स्त्रियां उसे आशीर्वाद दे रही थीं। स्वयं इस कल्पित बारात का दूल्हा बना हुआ सदन यहां से जाति-सेवा का संकल्प करके उठा और नीचे उतर आया। वह अपने विचारों में ऐसा लीन हो रहा था कि किसी से कुछ न बोला। थोड़ी ही दूर चला था कि उसे सुंदरबाई के भवन के सामने कुछ मनुष्य दिखाई दिए। उसने एक आदमी से पूछा, यह कैसा जमघट है? मालूम हुआ कि आज कुंवर अनिरुद्धसिंह यहां एक ‘कृषि सहायक सभा’ खोलने वाले हैं? सभा का उद्देश्य होगा, किसानों को जमींदारों के अत्याचारों से बचाना। सदन के मन में अभी-अभी कृषकों के प्रति जो सहानुभूति प्रकट हुई थी, वह मंद पड़ गई। वह जमींदार था और कृषकों पर दया करना चाहता था, पर उसे मंजूर न था कि कोई उसे दबाए और किसानों को भड़काकर जमींदारों के विरुद्ध खड़ा कर दे। उसने मन में कहा, ये लोग जमींदारों के सत्वों को मिटाना चाहते हैं। द्वेष-भाव से ही प्रेरित होकर इन लोगों ने यह संस्था खोलने का विचार किया है, तो हमलोगों को भी सतर्क हो जाना चाहिए, हमको अपनी रक्षा करनी चाहिए। मानव प्रकृति को दबाव से कितनी घृणा है? सदन ने यहां ठहरना व्यर्थ समझा, नौ बज गए थे। वह घर लौटा।
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