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सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है

५५

संध्या का समय है। आकाश पर लालिमा छाई हुई है और मंद वायु गंगा की लहरों पर क्रीड़ा कर रही है, उन्हें गुदगुदा रही है। वह अपने करुण नेत्रों से मुस्कराती है और कभी-कभी खिलखिलाकर हंस पड़ती है, तब उसके मोती के दांत चमक उठते हैं। सदन का रमणीय झोंपड़ा आज फूलों और लताओं से सजा हुआ है। दरवाजों पर मल्लाहों की भीड़ है। अंदर उनकी स्त्रियां बैठी सोहर गा रही हैं। आंगन में भट्ठी खुदी हुई है और बड़े-बड़े हंडे चढ़े हुए हैं। आज सदन के नवजात पुत्र की छठी है, यह उसी का उत्सव है।

लेकिन सदन बहुत उदास दिखाई देता है। वह सामने के चबूतरे पर बैठा हुआ गंगा की ओर देख रहा है। उसके हृदय में भी विचार की लहरें उठ रही हैं। ना! वे लोग न आएंगे। आना होता तो आज छह दिन बीत गए, आ न जाते? यदि मैं जानता कि वे न आएंगे, तो मैं चाचा से भी यह समाचार न कहता। उन्होंने मुझे मरा हुआ समझ लिया है, वे मुझसे कोई सरोकार नहीं रखना चाहते। मैं जीऊं या मरूं, उन्हें परवाह नहीं है। लोग ऐसे अवसर पर अपने शत्रुओं के घर भी जाते हैं। प्रेम से न आते, दिखावे के लिए आते, व्यवहार के तौर पर आते– मुझे मालूम तो हो जाता कि संसार में मेरा कोई है। अच्छा न आएं, इस काम से छुट्टी मिली, तो एक बार मैं स्वयं जाऊंगा और सदा के लिए निपटारा कर आऊंगा। लड़का कितना सुंदर है, कैसे लाल-लाल होंठ हैं। बिल्कुल मुझी को पड़ा है। हां, आंखें शान्ता की हैं। मेरी ओर कैसे ध्यान से टुक-टुक ताकता था। दादा को तो मैं नहीं कहता, लेकिन अम्मा उसे देखें तो एक बार गोद में अवश्य ही ले लें। एकाएक सदन के मन में यह विचार हुआ, अगर मैं मर जाऊं तो क्या हो? इस बालक का पालन कौन करेगा? कोई नहीं। नहीं, मैं मर जाऊं तो दादा को अवश्य उस पर दया आएगी। वह इतने निर्दय नहीं हो सकते। जरा देखूं। सेविंग बैंक में मेरे कितने रुपए हैं। अभी तक हजार भी पूरा नहीं। ज्यादा नहीं, अगर पचास रुपए महीना भी जमा करता जाऊं, तो साल भर में छह सौ रुपए हो जाएंगे। ज्योंही दो हजार पूरे हो जाएंगे, घर बनवाना शुरू कर दूंगा। दो कमरे सामने, पांच कमरे भीतर, दरवाजे पर मेहराबदार सायवान, पटाव के ऊपर दो कमरे हों तो मकान अच्छा हो। कुर्सी ऊंची रहने से घर की शोभा बढ़ जाती है, कम-से-कम पांच फुट की कुर्सी दूंगा।

सदन इन्हीं कल्पनाओं का आनंद ले रहा था। चारों ओर अंधेरा छाने लगा था कि इतने में उसने सड़क की ओर से एक गाड़ी आती देखी। उसकी दोनों लालटेनें बिल्ली की आंखों की तरह चमक रही थीं। कौन आ रहा है? चाचा साहब के सिवा और कौन होगा? मेरा और है ही कौन? इतने में गाड़ी निकट आ गई और उसमें से मदनसिंह उतरे। इस गाड़ी के पीछे एक और गाड़ी थी। सुभद्रा और भामा उसमें से उतरीं। सदन की दोनों बहनें भी थीं। जीतन कोचबक्स पर से उतरकर लालटेन दिखाने लगा। सदन इतने आदमियों को उतरते देखकर समझ गया कि घर के लोग आ गए, पर वह उनसे मिलने के लिए नहीं दौड़ा। वह समय बीत चुका था, जब वह उन्हें मनाने जाता। अब उसके मान करने का समय आ गया था। वह चबूतरे पर से उठकर झोंपड़े में चला गया, मानो उसने किसी को देखा ही नहीं। उसने मन में कहा, ये लोग समझते होंगे कि इनके बिना मैं बेहाल हुआ जाता हूं, पर उन्हें जैसे मेरी परवाह नहीं, उसी प्रकार मैं भी इनकी परवाह नहीं करता।

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