उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
लेकिन सुमन सब कुछ देखते हुए भी न देखती थी, सब कुछ सुनते हुए भी कुछ न सुनती थी। नदी में डूबते हुए मनुष्य के समान वह इस तिनके के सहारे को ही छोड़ सकती थी। वह अपना जीवन मार्ग स्थिर न कर सकती थी, पर इस समय सदन के माता-पिता को यहां देखकर उसे यह सहारा छोड़ना पड़ा। इच्छा-शक्ति जो कुछ न कर सकती थी, वह इस अवस्था ने कर दिखाया।
वह पांव दबाती हुई धीरे-धीरे झोंपड़े के पिछवाड़े आई और कान लगाकर सुनने लगी कि देखूं ये लोग मेरी कुछ चर्चा तो नहीं कर रहे हैं। आध घंटे तक वह इसी प्रकार खड़ी रही। भामा और सुभद्रा इधर-उधर की बातें कर रही थीं। अंत में भामा ने कहा– क्या अब इसकी बहन यहां नहीं रहती?
सुभद्रा– रहती क्यों नहीं, वह कहां जाने वाली है?
भामा– दिखाई नहीं देती।
सुभद्रा– किसी काम से गई होगी। घर का सारा काम तो वही संभाले हुए है।
भामा– आए तो कह देना कि कहीं बाहर लेट रहे। सदन उसी का बनाया खाता होगा?
शान्ता सौरीगृह में से बोली– नहीं, अभी तक तो मैं ही बनाती रही हूं। आजकल वह अपने हाथ से बना लेते हैं।
भामा– तब भी घड़ा-बर्तन तो वह छूती ही रही होगी। यह घड़ा फिंकवा दो, बर्तन फिर से धुल जाएंगे।
सुभद्रा– बाहर कहां सोने की जगह है?
भामा– हो चाहे न हो, लेकिन यहां मैं उसे न सोने दूंगी। वैसी स्त्री का क्या विश्वास?
सुभद्रा– नहीं दीदी, वह अब वैसी नहीं है। वह बड़े नेम-धरम से रहती है।
भामा– चलो, वह बड़ी नेम-धरम से रहने वाली है। सात घाट का पानी पी के आज नेम वाली बनी है। देवता की मूरत टूटकर फिर नहीं जुड़ती। वह अब देवी बन जाए, तब भी मैं विश्वास न करूं।
सुमन इससे ज्यादा न सुन सकी। उसे ऐसा मालूम हुआ, मानो किसी ने लोहा लाल करके उसके हृदय में चुभा दिया। उल्टे पांव लौटी और उसी अंधकार में एक ओर चल पड़ी।
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