उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
361 पाठक हैं |
यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
अंधेरा खूब छाया था, रास्ता भी अच्छी तरह न सूझता था, पर सुमन गिरती-पड़ती चली जाती थी, मालूम नहीं कहां, किधर? वह अपने होश में न थी। लाठी खाकर घबराए हुए के समान वह मूर्च्छावस्था में लुढ़कती जा रही थी। संभलना चाहती थी, पर संभल न सकती थी। यहां तक कि उसके पैरों में एक बड़ा-सा कांटा चुभ गया वह पैर पकड़कर बैठ गई। चलने की शक्ति न रही।
उसने बेहोशी के बाद होश में आने वाले मनुष्य के समान इधर-उधर चौंककर देखा। चारों ओर सन्नाटा था। गहरा अंधकार छाया हुआ था। केवल सियार अपना राग अलाप रहे थे। यहां मैं अकेली हूं, यह सोचकर सुमन के रोएं खड़े हो गए। अकेला-मन किसे कहते हैं, यह उसे आज मालूम हुआ। लेकिन यह जानते हुए भी कि यहां कोई नहीं हैं, मैं ही अकेली हूं, उसे अपने चारों ओर, नीचे-ऊपर नाना प्रकार के जीव आकाश में चलते हुए दिखाई देते थे। यहां तक कि उसने घबड़ाकर आंखें बंद कर लीं। निर्जनता कल्पना को अत्यंत रचनाशील बना देती है।
सुमन सोचने लगी, मैं कैसी अभागिन हूं और तो और, सगी बहन भी अब मेरी सूरत नहीं देखना चाहती। उसे कितना अपनाना चाहा, पर वह अपनी न हुई। मेरे सिर कलंक का टीका लग गया और वह अब धोने से नहीं धुल सकता। मैं उसको या किसी को दोष क्यों दूं? यह सब मेरे कर्मों का फल है। आह! एंड़ी में कैसी पीड़ा हो रही है, यह कांटा कैसे निकलेगा? भीतर उसका एक टुकड़ा टूट गया है। कैसा टपक रहा है, नहीं, मैं किसी को दोष नहीं दे सकती। बुरे कर्म तो मैंने किए हैं, उनका फल कौन भोगेगा? विलास-लालसा ने मेरी यह दुर्गति की। कैसी अंधी हो गई थी, केवल इंद्रियों के सुखभोग के लिए अपनी आत्मा का नाश कर बैठी। मुझे कष्ट अवश्य था। मैं गहने-कपड़े को तरसती थी, अच्छे भोजन को तरसती थी, प्रेम को तरसती थी। उस समय मुझे अपना जीवन दुखमय दिखाई देता था, पर वह अवस्था भी तो मेरे पूर्वजन्म के कर्मों का फल थी और क्या ऐसी स्त्रियां नहीं हैं, जो उससे कहीं अधिक कष्ट झेलकर भी अपनी आत्मा की रक्षा करती हैं? दमयंती पर कैसे-कैसे दुख पड़े, सीता को रामचन्द्र ने घर से निकाल दिया, वह बरसों जंगलों में नाना प्रकार के क्लेश उठाती रहीं, सावित्री ने कैसे-कैसे दुःख सहे, पर वह धर्म पर दृढ़ रहीं। उतनी दूर क्यों जाऊं मेरे ही पड़ोस में कितनी स्त्रियां रो-रोकर दिन काट रही थीं। अमोला में वह बेचारी अहीरिन कैसी विपत्ति झेल रही थी। उसका पति परदेश से बरसों न आता था, बेचारी उपवास करके पड़ी रहती थी। हाय, इतनी सुंदरता ने मेरी मिट्टी खराब की। मेरे सौन्दर्य के अभिमान ने मुझे यह दिन दिखाया।
हा प्रभो! तुम सुंदरता देकर मन को चंचल क्यों बना देते हो? मैंने सुंदर स्त्रियों को प्रायः चंचल ही पाया। कदाचित् ईश्वर इस युक्ति से हमारी आत्मा की परीक्षा करते हैं, अथवा जीवन-मार्ग में सुंदरता रूपी बाधा डालकर हमारी आत्मा को बलवान, पुष्ट बनाना चाहते हैं। सुंदरता रूपी आग में आत्मा को डालकर उसे चमकाना चाहते हैं। पर हां! अज्ञानवश हमें कुछ नहीं सूझता, यह आग हमें जला डालती है, यह हमें विचलित कर देती है।
|