उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
यह कैसे बंद हो, न जाने किस चीज का कांटा था। जो कोई आके मुझे पकड़ ले तो यहां चिल्लाऊंगी, तो कौन सुनेगा? कुछ नहीं, यह न विलास-प्रेम का दोष है, न सुंदरता का दोष है, यह सब मेरे अज्ञान का दोष है, भगवान! मुझे ज्ञान दो! तुम्हीं अब मेरा उद्धार कर सकते हो। मैंने भूल की कि विधवाश्रम में गई। सदन के साथ रहकर भी मैंने भूल की। मनुष्यों से अपने उद्धार की आशा रखना व्यर्थ है। ये आप ही मेरी तरह अज्ञान में पड़े हुए हैं। ये मेरा उद्धार क्या करेंगे? मैं उसी की शरण में जाऊंगी। लेकिन कैसे जाऊं? कौन-सा मार्ग है, दो साल से धर्म-ग्रंथों को पढ़ती हूं, पर कुछ समझ में नहीं आता। ईश्वर, तुम्हें कैसे पाऊं? मुझे इस अंधकार से निकालो! तुम दिव्य हो, ज्ञानमय हो, तुम्हारे प्रकाश में संभव है, यह अंधकार विच्छिन्न हो जाए। यह पत्तियां क्यों खड़खड़ा रही हैं? कोई जानकर तो नहीं आता? नहीं, कोई अवश्य आता है।
सुमन खड़ी हो गई। उसका चित्त दृढ़ था। वह निर्भय हो गई थी।
सुमन बहुत देर तक इन्हीं विचारों में मग्न रही। इससे उसके हृदय को शांति न होती थी। आज तक उसने इस प्रकार कभी आत्म-विचार नहीं किया था। इस संकट में पड़कर उसकी सदिइच्छा जाग्रत हो गई थी।
रात बीत चुकी थी। वसंत की शीतल वायु चलने लगी। सुमन ने साड़ी समेट ली और घुटनों पर सिर रख लिया। उसे वह दिन याद आया, जब इसी ऋतु में इसी समय वह अपने पति के द्वार पर बैठी हुई सोच रही थी कि कहां जाऊं? उस समय वह विलास की आग में जल रही थी। आज भक्ति की शीतल छाया ने उसे आश्रय दिया था।
एकाएक उसकी आंखें झपक गईं। उसने देखा कि स्वामी गजानन्द मृगचर्म धारण किए उसके सामने खड़े दयापूर्ण नेत्रों से उसकी ओर ताक रहे हैं। सुमन उनके चरणों पर गिर पड़ी और दीन भाव से बोली– स्वामी! मेरा उद्धार कीजिए।
सुमन ने देखा कि स्वामीजी ने उसके सिर पर दया से हाथ फेरा और कहा– ईश्वर ने मुझे इसीलिए तुम्हारे पास भेजा है। बोलो, क्या चाहती हो, धन?
सुमन– नहीं, महाराज, धन की इच्छा नहीं।
स्वामी– भोग-विलास?
सुमन– महाराज, इसका नाम न लीजिए, मुझे ज्ञान दीजिए।
स्वामी– अच्छा तो सुनो, सतयुग में मनुष्य की मुक्ति ज्ञान से होती थी, त्रेता में सत्य से, द्वापर मंा भक्ति से, पर इस कलयुग में इसका केवल एक ही मार्ग है और वह है सेवा। इसी मार्ग पर चलो, तुम्हारा उद्घार होगा। जो लोग तुमसे भी दीन, दुखी, दलित हैं, उनकी शरण में जाओ और उनका आशीर्वाद तुम्हरा उद्धार करेगा। कलियुग में परमात्मा इसी दुखसागर में वास करते हैं।
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