उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
सुमन की आंखें खुल गईं। उसने इधर-उधर देखा, उसे निश्चय था कि मैं जागती थी। इतनी जल्दी स्वामीजी कहां अदृश्य हो गए। अकस्मात् उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि सामने पेड़ों के नीचे स्वामीजी लालटेन लिए खड़े हैं। वह उठकर लंगडा़ती उनकी ओर चली। उसने अनुमान किया था कि वृक्ष समूह सौ गज के अंतर पर होगा, पर वह सौ के बदले दो सौ, तीन सौ, चार सौ गज चली गई और वह वृक्षपुंज और उनके नीचे स्वामीजी लालटेन लिए हुए उतनी ही दूर खड़े थे।
सुमन को भ्रम हुआ, मैं सो तो नहीं रही हूं? यह कोई स्वप्न तो नहीं है? इतना चलने पर भी वह उतनी ही दूर है। उसने जोर से चिल्लाकर कहा– महाराज, आती हूं, आप जरा ठहर जाइए।
उसके कानों में शब्द सुनाई दिए– चली आओ, मैं खड़ा हूं।
सुमन फिर चली, पर दो सौ कदम चलने पर वह थककर बैठ गई। वह वृक्षसमूह और स्वामीजी ज्यों-के-त्यों सामने सौ गज की दूरी पर खड़े थे।
भय से सुमन के रोएं खड़े हो गए। उसकी छाती धड़कने लगी और पैर थर-थर कांपने लगे। उसने चिल्लाना चाहा, पर आवाज न निकली।
सुमन ने सावधान होकर विचार करना चाहा कि यह क्या रहस्य है, मैं कोई प्रेत-लीला तो नहीं देख रही हूं, लेकिन कोई अज्ञात शक्ति उसे उधर खींचे लिए जाती थी, मानों इच्छा-शक्ति मन को छोड़कर उसी रहस्य के पीछे दौड़ी जाती है।
सुमन फिर चली। अब वह शहर के निकट आ गई थी। उसने देखा कि स्वामीजी एक छोटी-सी झोंपड़ी में चले गए और वृक्ष-समूह अदृश्य हो गया। सुमन ने समझा, यही उनकी कुटी है। उसे बड़ा धीरज हुआ। अब स्वामीजी से अवश्य भेंट होगी। उन्हीं से यह रहस्य खुलेगा।
उसने कुटी के द्वार पर जाकर कहा– स्वामीजी, मैं हूं सुमन!
यह कुटी गजानन्द की ही थी, पर वह सोए हुए थे। सुमन को कुछ जवाब न मिला।
सुमन ने साहस करके कुटी में झांका। आग जल रही थी और गजानन्द कंबल ओढे़ सो रहे थे। सुमन को अचंभा हुआ कि अभी तो चले आते हैं, इतनी जल्दी सो कैसे गए और वह लालटेन कहां चली गई? जोर से पुकारा– स्वामीजी!
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