उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
गजानन्द उठ बैठे और विस्मित नेत्रों से सुमन को देखा। वह एक मिनट तक ध्यानपूर्वक उसे देखते रहे। तब बोले– कौन? सुमन!
सुमन– हां महाराज, मैं हूं।
गजानन्द– मैं अभी-अभी तुम्हें स्वप्न में देख रहा था।
सुमन ने चकित होकर कहा– आप तो अभी-अभी कुटी में आए हैं।
गजानन्द– नहीं मुझे सोए बहुत देर हुई, मैं तो कुटी से निकला नहीं। अभी स्वप्न में तुम्हीं को देख रहा था।
सुमन– और मैं आप ही के पीछे-पीछे गंगा किनारे से चली आ रही हूं। आप लालटेन लिए मेरे सामने चले आते थे।
गजानन्द ने मुस्कुराकर कहा– तुम्हें धोखा हुआ।
सुमन– धोखा होता, तो मैं बिना देखे-सुने यहां कैसे पहुंच जाती? मैं नदी किनारे अकेले सोच रही थी कि मेरा उद्धार कैसे होगा? मैं परमात्मा से विनय कर रही थी कि मुझ पर दया करो और अपनी शरण में लो। इतने में आप वहां पहुंचे और मुझे सेवाधर्म का उपेदश दिया। मैं आपसे कितनी ही बातें पूछना चाहती थी, पर आप अदृश्य हो गए। किंतु एक क्षण में मैंने आपको लालटेन लिए थोड़ी दूर पर खड़े देखा। बस, आपके पीछे दौड़ी। यह रहस्य मेरी समझ में नहीं आता। कृपा करके मुझे समझाइए।
गजानन्द– संभव है, ऐसा ही हुआ हो, पर ये बातें अभी तुम्हारी समझ में नहीं आएंगी।
सुमन– कोई देवता तो नहीं थे, जो आपका वेश धारण करके मुझे आपकी शरण में लाए हो?
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