उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
गजानन्द– यह भी संभव है। तुमने जो कहा, वही मैं स्वप्न में देख रहा था और तुम्हें सेवाधर्म का उपेदश कर रहा था। सुमन, तुम मुझे भलीभांति जानती हो, तुमने मेरे हाथों बहुत दुख उठाए हैं, बहुत कष्ट सहे हैं। तुम जानती हो, मैं कितने नीच प्रकृति का अधम जीव हूं, लेकिन अपनी उन नीचताओं का स्मरण करता हूं, तो मेरा हृदय व्याकुल हो जाता है। तुम आदर के योग्य थीं, मैंने तुम्हारा निरादर किया। यह हमारी दुरवस्था का, हमारे दुखों का मूल कारण है। ईश्वर वह दिन कब लाएगा कि हमारी जाति में स्त्रियों का आदर होगा। स्त्री मैले-कुचैल, फटे-पुराने वस्त्र पहनकर आभूषण-विहीन होकर, आधे पेट सूखी रोटी खाकर, झोंपड़े में रहकर, मेहनत-मजदूरी कर, सब कष्टों को सहते हुए भी आनंद से जीवन व्यतीत कर सकती है। केवल घर में उसका आदर होना चाहिए, उससे प्रेम होना चाहिए। आदर या प्रेम-विहीन महिला महलों में भी सुख से नहीं रह सकती, पर मैं अज्ञान, अविद्या के अंधकार में पड़ा हुआ था। अपना उद्धार करने का साधन मेरे पास न था। न ज्ञान था, न विद्या थी, न भक्ति थी, न कर्म का सामर्थ्य था। मैंने अपने बंधुओं की सेवा करने का निश्चय किया। यही मार्ग मेरे लिए सबसे सरल था। तब से मैं यथाशक्ति इसी मार्ग पर चल रहा हूं और अब मुझे अनुभव हो रहा है कि आत्मोद्धार के मार्गों में केवल नाम का अंतर है। मुझे इस मार्ग पर चलकर शांति मिली है और मैं तुम्हारे लिए भी यही मार्ग सबसे उत्तम समझता हूं। मैंने तुम्हें आश्रम में देखा, सदन के घर में देखा, तुम सेवाव्रत में मग्न थीं। तुम्हारे लिए ईश्वर से यही प्रार्थना करता था। तुम्हारे हृदय में दया है, प्रेम है, सहानुभूति है और सेवाधर्म के यही मुख्य साधन हैं। तुम्हारे लिए उसका द्वार खुला है। वह तुम्हे अपनी ओर बुला रहा है। उसमें प्रवेश करो, ईश्वर तुम्हारा कल्याण करेंगे।
सुमन को गजानन्द के मुखारविंद पर एक विमल ज्योति का प्रकाश दिखाई दिया। उसके अंतःकरण में एक अद्भुत श्रद्धा और भक्ति का भाव उदय हुआ। उसने सोचा, इनकी आत्मा में कितनी दया और प्रेम है। हाय! मैंने ऐसे नर-रत्न का तिरस्कार किया। इनकी सेवा में रहती, तो मेरा जीवन सफल हो गया होता। बोली– महाराज, आप मेरे लिए ईश्वर रूप हैं, आपके ही द्वारा मेरा उद्घार हो सकता है। मैं अपना तन-मन आपकी सेवा में अर्पण करती हूं। यही प्रतिज्ञा एक बार मैंने की थी, पर अज्ञानतावश उसका पालन न कर सकी। वह प्रतिज्ञा मेरे हृदय से न निकली थी। आज मैं सच्चे मन से यह प्रतिज्ञा करती हूं। आपने मेरी बांह पकड़ी थी, अब यद्यपि मैं पतित हो गई हूं, पर आप अपनी उदारता से मुझे क्षमादान कीजिए और मुझे सन्मार्ग पर ले जाइए।
गजानन्द को इस समय सुमन के चेहरे पर प्रेम और पवित्रता की छटा दिखाई दी। वह व्याकुल हो गए। वह भाव, जिन्हें उन्होंने बरसों से दबा रखे थे, जाग्रत होने लगे। सुख और आनंद की नवीन भावनाएं उत्पन्न होने लगीं। उन्हें अपना जीवन शुष्क, नीरस, आनंदविहीन जान पड़ने लगा। वह इन कल्पनाओं से भयभीत हो गए। उन्हें शंका हुई कि यदि मेरे मन में यह विचार ठहर गए तो मेरा संयम, वैराग्य और सेवाव्रत इसके प्रवाह में तृण के समान बह जाएंगे। वह बोल उठे– तुम्हें मालूम है कि यहां एक अनाथालय खोला गया है?
सुमन– हां, इसकी कुछ चर्चा सुनी तो थी।
गजानन्द– इस अनाथालय में विशेषकर वही कन्याएं हैं, जिन्हें वेश्याओं ने हमें सौंपा है। कोई पचास कन्याए होंगी।
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