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सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है

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एक साल बीत गया। पंडित मदनसिंह पहले तीर्थ यात्रा पर उधार खाए बैठे थे। जान पड़ता था, सदन के घर आते ही एक दिन भी न ठहरेंगे, सीधे बद्रीनाथ पहुंचकर दम लेंगे, पर जब से सदन आ गया है, उन्होंने भूलकर भी तीर्थ-यात्रा का नाम नहीं लिया। पोते को गोद में लिए असामियों का हिसाब करते हैं, खेतों की निगरानी करते हैं। माया ने और भी जकड़ लिया है। हां, भामा अब कुछ निश्चिंत हो गई है। पड़ोसियों से वार्तालाप करने का कर्त्तव्य अपने सिर से नहीं हटाया। शेष कार्य उसने शान्ता पर छोड़ दिए हैं।

पंडित पद्मसिंह ने वकालत छोड़ दी। अब वह म्युनिसिपैलिटी के प्रधान कर्मचारी हैं। इस काम से उन्हें बहुत रुचि है। शहर दिनों-दिन उन्नति कर रहा है। साल के भीतर ही कई नई सड़कें, नए बाग तैयार हो गए हैं, अब उनका इरादा है इक्के और गाड़ी वालों के लिए शहर के बाहर एक मुहल्ला बनवा दें। शर्माजी के कई पहले के मित्र अब उनके विरोधी हो गए हैं और पहले के कितने ही विरोधियों से मेल हो गया है, किंतु महाशय विट्ठलदास पर उनकी श्रद्धा दिनोंदिन बढ़ती जाती है। वह बहुत चाहते हैं कि महाशय को म्युनिसिपैलिटी में कोई अधिकार दें, पर विट्ठलदास राजी नहीं होते। वह निःस्वार्थ कर्म की प्रतिज्ञा को नहीं तोड़ना चाहते। उनका विचार है कि अधिकारी बनकर वह इतना हित नहीं कर सकते, जितना पृथक रहकर कर सकते हैं। उनका विधवाश्रम इन दिनों बहुत उन्नति पर है और म्युनिसिपैलिटी से उसे विशेष सहायता मिलती है। आजकल वह कृषकों की सहायता के लिए एक कोष स्थापित करने का उद्योग कर रहे हैं, जिससे किसानों को बीज और रुपए नाममात्र सूद पर उधार दिए जा सकें, इस सत्कार्य में सदन बाबू विट्ठलदास का दाहिना हाथ बना हुआ है।

सदन का अपने गांव में मन नहीं लगा। वह शान्ता को वहां छोड़कर फिर गंगा किनारे के झोंपड़े में आ गया है और उस व्यवसाय को खूब बढ़ा रहा है। उसके पास अब पांच नावें हैं और सैकड़ों रुपए महीने का लाभ हो रहा है। वह अब एक स्टीमर मोल लेने का विचार कर रहा है।

स्वामी गजानन्द अधिकतर देहातों में रहते हैं। उन्होंने निर्धनों की कन्याओं का उद्धार करने के निमित्त अपना जीवन अर्पण कर दिया है। शहर में आते हैं, तो दो-एक दिन से अधिक नहीं ठहरते।

५७

कार्तिक का महीना था। पद्मसिंह सुभद्रा को लेकर गंगा-स्नान कराने ले गए थे। लौटती बार वह अलईपुर की ओर से आ रहे थे। सुभद्रा गाड़ी की खिड़की से बाहर झांकती चली आती थी और सोचती थी कि यहाँ इस सन्नाटे में लोग कैसे रहते हैं। उनका मन कैसे लगता है। इतने में उसे एक सुंदर भवन दिखाई पड़ा, जिसके फाटक पर मोटे अक्षरों में लिखा था– सेवासदन।

सुभद्रा ने शर्माजी से पूछा– क्या यही सुमनबाई का सेवासदन है?

शर्माजी ने कुछ उदासीन भाव से कहा– हां।

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