उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
वह पछता रहे थे कि इस रास्ते से क्यों आए? यह अब अवश्य ही इस आश्रम को देखेगी। मुझे भी जाना पड़ेगा, बुरे फंसे। शर्माजी ने अब तक एक बार भी सेवासदन का निरीक्षण नहीं किया था। गजानन्द ने कितनी ही बार चाहा कि उन्हें लाएं, पर वह कोई-न-कोई बहाना कर दिया करते थे। वह सब कुछ कर सकते थे, पर सुमन के सम्मुख आना उनके लिए कठिन था। उन्हें सुमन की वे बातें कभी न भूलती थीं, जो उसने कंगन देते समय पार्क में उनसे कहीं थीं। उस समय वह सुमन से इसलिए भागते थे कि उन्हें लज्जा आती थी। उनके चित्त से यह विचार कभी दूर न होता था कि वह स्त्री, जो इतनी साध्वी तथा सच्चरित्रा हो सकती है, केवल मेरे कुसंस्कारों के कारण कुमार्ग-गामिनी बनी– मैंने ही उसे कुएं में गिराया।
सुभद्रा ने कहा– जरा गाड़ी रोक लो, इसे देखूंगी।
पद्मसिंह– आज बहुत देर होगी, फिर कभी आ जाना।
सुभद्रा– साल भर से तो आ रही हूं, पर आज तक कभी न आ सकी। यहां से जाकर फिर न जाने कब फुर्सत हो?
पद्मसिंह– तुम आप ही नहीं आईं। कोई रोकता था?
सुभद्रा– भला, जब नहीं आई तब नहीं आई। अब तो आई हूं। अब क्यों नहीं चलते?
पद्मसिंह– चलने से मुझे इंकार थोड़े ही है, केवल देर हो जाने का भय है। नौ बजते होंगे।
सुभद्रा– यहां कौन बहुत देर लगेगी, दस मिनट मैं लौट आएंगे।
पद्मसिंह– तुम्हारी हठ करने की बुरी आदत है। कह दिया कि इस समय मुझे देर होगी, लेकिन मानती नहीं हो।
सुभद्रा– जरा घोड़े को तेज कर देना, कसर पूरी हो जाएगी।
पद्मसिंह– अच्छा तो तुम जाओ। अब से संध्या तक जब जी चाहे घर लौट आना। मैं चलता हूं। गाड़ी छोड़े जाता हूं। रास्ते में कोई सवारी किराए पर कर लूंगा।
सुभद्रा– तो इसकी क्या आवश्यकता है। तुम यहीं बैठे रहो, मैं अभी लौट आती हूं।
पद्मसिंह– (गाड़ी से उतरकर) मैं चलता हूं, तुम्हारा जब जी चाहे आना।
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