उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
सुभद्रा इस हीले-हवाले का कारण समझ गई। उसने ‘जगत’ में कितनी ही बार ‘सेवासदन’ की प्रशंसा पढ़ी थी। पंडित प्रभाकर राव की इन दिनों सेवासदन पर बड़ी दया-दृष्टि थी। अतएव सुभद्रा को इस आश्रम से प्रेम-सा हो गया था और सुमन के प्रति उसके हृदय में भक्ति उत्पन्न हो गई थी। वह सुमन को इस नई अवस्था में देखना चाहती थी। उसको आश्चर्य होता था कि सुमन इतने नीचे गिरकर कैसे ऐसी विदुषी हो गई कि पत्रों में प्रशंसा उसकी छपती है। उसके जी में तो आया कि पंडितजी को खूब आड़े हाथों लेस, पर साईस खड़ा था, इसलिए कुछ न बोल सकी। गाड़ी से उतरकर आश्रम में दाखिल हुई।
वह ज्यों ही बरामदे में पहुंची कि एक स्त्री ने भीतर जाकर सुमन को उसके आने की सूचना दी और एक क्षण में सुभद्रा ने सुमन को आते देखा। वह उस केशहीना, आभूषण-विहीना सुमन को देखकर चकित हो गई। उसमें न वह कोमलता थी, न वह चपलता, न वह मुस्कराती हुई आंखें, न हंसते हुए होंठ। रूप-लावण्य की जगह पवित्रता की ज्योति झलक रही थी।
सुमन निकट आकर सुभद्रा के पैरों पर गिर पड़ी और सजल नयन होकर बोली– बहूजी, आज, मेरे धन्य भाग्य हैं कि आपको यहां देख रही हूं।
सुभद्रा की आंखें भर आई। उसने सुमन को उठाकर छाती से लगा लिया और गद्गद् स्वर में कहा– बाईजी, आने का तो बहुत जी चाहता था, पर आलस्यवश अब तक न आ सकी थी।
सुमन– शर्माजी भी हैं या आप अकेले ही आई हैं?
सुभद्रा– साथ तो थे, पर उन्हें देर हो गई थी, इसलिए वह दूसरी गाड़ी करके चले गए।
सुमन ने उदास होकर कहा– देर तो क्या होती थी, पर वह यहां आना ही नहीं चाहते। मेरा अभाग्य! दुख केवल यह है कि जिस आश्रम के वह स्वयं जन्मदाता है, उससे मेरे कारण उन्हें इतनी घृणा है। मेरी हृदय से अभिलाषा थी कि एक बार आप और वह दोनों यहां आते। आधी तो आज पूरी हुई, शेष भी कभी-न-कभी पूरी होगी ही। वह मेरे उद्धार का दिन होगा।
यह कहकर सुमन ने सुभद्रा को आश्रम दिखाना शुरू किया। भवन में पांच बड़े कमरे थे। पहले कमरे में लगभग तीस बालिकाएं बैठी हुई कुछ पढ़ रही थी। उनकी अवस्था बारह वर्ष से पंद्रह तक की थी। अध्यापिका ने सुभद्रा को देखते ही आकर उससे हाथ मिलाया। सुमन ने दोनों का परिचय कराया। सुभद्रा को यह सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि वह महिला मिस्टर रुस्तम भाई बैरिस्टर की सुयोग्य पत्नी हैं। नित्य दो घंटे के लिए आश्रम में आकर इन युवतियों को पढ़ाया करती थीं।
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