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सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


दूसरे कमरे मे भी इतनी कन्याएं थीं। उनकी अवस्था आठ से लेकर बारह वर्ष तक थी। उनमें कोई कपड़े काटती थी, कोई सीती थी और कोई अपने पास वाली लड़की को चिकोटी काटती थी। यहां कोई अध्यापिका न थी। एक बूढ़ा दर्जी काम कर रहा था। सुमन ने कन्याओं के तैयार किए हुए कुर्ते, जाकेट आदि सुभद्रा को दिखाई।

तीसरे कमरे में पंद्रह-बीस छोटी-छोटी बालिकाएं थी, कोई पांच वर्ष से अधिक की थी। इनमें कोई गुड़िया खेलती थी, कोई दीवार पर लटकती हुई तस्वीरें देखती थी। सुमन आप ही इस कक्षा की अध्यापिका थी।

सुभद्रा यहां से सामने वाले बगीचे में आकर इन्हीं लड़कियों के लगाए हुए फूल-पत्ते देखने लगी। कन्याएं वहां आलू-गोभी की क्यारियों में पानी दे रही थीं। उन्होंने सुभद्रा को सुंदर फूलों का एक गुलदस्ता भेंट किया।

भोजनालय में कई कन्याएं बैठी भोजन कर रही थीं। सुमन ने सुभद्रा को इन कन्याओं के बनाए हुए अचार-मुरब्बे आदि दिखाए।

सुभद्रा को यहां का सुप्रबंध, शांति और कन्याओं का शील-स्वभाव देखकर बड़ा आनंद हुआ। उसने मन में सोचा, सुमन इतने बड़े आश्रम को अकेले कैसे चलाती होगी, मुझसे तो कभी न हो सकता। कोई लड़की मलिन या उदास नहीं दिखाई देती।

सुमन ने कहा– मैंने यह भार अपने ऊपर ले तो लिया, पर मुझमें संभालने की शक्ति नहीं है। लोग जो सलाह देते हैं, वही मेरा आधार है। आपको भी जो कुछ त्रुटि दिखाई दे, वह कृपा करके बता दीजिए, इससे मेरा उपकार होगा।

सुभद्रा ने हंसकर कहा– बाईजी, मुझे लज्जति न करो। मैंने तो जो कुछ देखा है, उसी से चकित हो रही हूं, तुम्हें सलाह क्या दूंगी? बस, इतना ही कह सकती हूं कि ऐसा अच्छा प्रबंध विधवा-आश्रम का भी नहीं है।

सुमन– आप संकोच कर रही हैं।

सुभद्रा– नहीं, सत्य कहती हूं। मैंने जैसा सुना था, इसे उससे बढ़कर पाया! हां, यह तो बताओ, इन बालिकाओं की माताएं इन्हें देखने आती हैं या नहीं?

सुमन– आती हैं, पर मैं यथासाध्य इस मेल-मिलाप को रोकती हूं।

सुभद्रा– अच्छा, इनका विवाह कहां होगा?

सुमन-यह तो टेढ़ी खीर है। हमारा कर्त्तव्य यह है कि इन कन्याओं को चतुर गृहिणी बनने के योग्य बना दें। उनका आदर समाज करेगा या नहीं, मैं नहीं कह सकती।

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