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सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


सुभद्रा– बैरिस्टर साहब की पत्नी को इस काम में बड़ा प्रेम है।

सुमन– यह कहिए कि आश्रम की स्वामिनी वही हैं। मैं तो केवल उनकी आज्ञाओं का पालन करती हूं।

सुभद्रा– क्या कहूं, मैं किसी योग्य नहीं, नहीं तो मैं भी यहां कुछ काम किया करती।

सुमन– आते-आते तो आप आज आई हैं, उस पर शर्माजी को नाराज करके। शर्माजी फिर इधर आने तक न देंगे।

सुभद्रा– नहीं। अब की इतवार को मैं उन्हें अवश्य खींच लाऊंगी। बस, मैं लड़कियों को पान लगाना और खाना सिखाया करूंगी।

सुमन– (हंसकर) इस काम में आप कितनी ही लड़कियों को अपने से भी निपुण पाएंगी।

इतने में दस लड़कियां सुंदर वस्त्र पहने हुए आईं और सुभद्रा के सामने खड़ी होकर मधुर स्वर में गाने लगीं :

हे जगत पिता, जगत प्रभु, मुझे अपना प्रेम और प्यार दे।

तेरी भक्ति में लगे मन मेरा, विषय कामना को बिसार दे।

सुभद्रा यह गीत सुनकर बहुत प्रसन्न हुई और लड़कियों को पांच रुपए इनाम दिया।

जब वह चलने लगी, तो सुमन ने करुण स्वर में कहा– मैं इसी रविवार को आपकी राह देखूंगी।

सुभद्रा– मैं अवश्य आऊंगी।

सुमन– शान्ता तो कुशल से है?

सुभद्रा– हां, पत्र आया था। सदन तो यहां नहीं आए?

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