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उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास)

सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


सुमन– नहीं, पर दो रुपए मासिक चंदा भेज दिया करते हैं।

सुभद्रा– अब आप बैठिए, मुझे आज्ञा दीजिए।

सुमन– आपके आने से मैं कृतार्थ हो गई। आपकी भक्ति, आपका प्रेम, आपकी कार्यकुशलता, किस-किसकी बड़ाई करूं। आप वास्तव में स्त्री-समाज का श्रृंगार हैं। (सजल नेत्रों से) मैं तो अपने को आपकी दासी समझती हूं। जब तक जीऊंगी, आप लोगों का यश मानती रहूंगी। मेरी बांह पकड़ी और मुझे डूबने से बचा लिया। परमात्मा आपलोगों का सदैव कल्याण करें।

समाप्त

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