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उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास)

सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


गजाधर रोने लगा। उसके मन का भ्रम दूर हो गया। रोते हुए बोला– महाशय, इस अपराध के लिए मुझे जो चाहें, सजा दें। मैं गंवार-मूर्ख ठहरा, जिसने जो बात सुझा दी, मान गया। वह जो बैंकघर के बाबू हैं, भला-सा नाम है– विट्ठलदास, मैं उन्हीं के चकमे में आ गया। होली के एक दिन पहले वह हमारी दुकान पर आए थे, कुछ कपड़ा लिया, और मुझे अलग से जाकर आपके बारे में...अब क्या कहूं। उनकी बातें सुनकर मुझे भ्रम हो गया। मैं उन्हें भला आदमी समझता था। सारे शहर में दूसरों के साथ भलाई करने के लिए उपदेश करते फिरते है। ऐसा धर्मात्मा आदमी कोई बात कहता है, तो उस पर विश्वास आ ही जाता है। मालूम नहीं, उन्हें आपसे क्या बैर था, और मेरा तो उन्होंने घर ही बिगाड़ दिया।

यह कहकर गजाधर फिर रोने लगा। उसके मन का भ्रम दूर हो गया। रोते हुए बोला– सरकार, इस अपराध के लिए मुझे जो सजा चाहे दें।

शर्माजी को ऐसा जान पड़ा, मानों किसी ने लोहे की छड़ लाल करके उनके हृदय में चुभो दी। माथे पर पसीना आ गया। वह सामने से तलवार का वार रोक सकते थे, किंतु पीछे से सुई की नोंक भी उनकी सहन-शक्ति से बाहर थी। विट्ठलदास उनके परम मित्र थे। शर्माजी उनकी इज्जत करते थे। आपस में बहुधा मतभेद होने पर भी वह उनके पवित्र उद्देश्यों का आदर करते थे। ऐसा व्यक्ति जान-बूझकर कर जब किसी पर कीचड़ फेंके, तो इसके सिवा और क्या कहा जा सकता है कि शुद्ध विचार रखते हुए भी वह क्रूर हैं। शर्माजी समझ गए कि होली के जलसे के प्रस्ताव से नाराज होकर विट्ठलदास ने यह आग लगाई। केवल मेरा अपमान करने के लिए, जनता की दृष्टि से गिराने के लिए मुझ पर यह दोषारोपण किया है। क्रोध से कांपते हुए बोले– तुम उनके मुंह पर कहोगे?

गजाधर– हां, सांच को क्या आंच? चलिए, अभी मैं उनके सामने कह दूं। मजाल है कि वह इनकार कर जाएं।

क्रोध के आवेग में शर्माजी चलने को प्रस्तुत हो गए। किंतु इतनी देर में आंधी का वेग कुछ कम हो चला था। संभल गए। इस समय वहां जाने से बात बढ़ जाएगी, यह सोचकर गजाधर से बोले– अच्छी बात है। जब बुलाऊं तो चले आना। मगर निश्चिंत मत बैठो। महाराजिन की खोज में रहो, समय बुरा है। जो खर्च की ज़रूरत हो, वह मुझसे लो।

यह कहकर शर्माजी घर चले गए। विट्ठलदास की गुप्त छुरी के आघात ने उन्हें निस्तेज बना दिया था। वह यही समझते थे कि विट्ठलदास ने केवल द्वेष के कारण यह षड्यंत्र रचा है। यह विचार शर्माजी के ध्यान में भी आया कि संभव है, उन्होंने जो कुछ कहा हो, वह शुभचिंताओं से प्रेरित होकर कहा हो और उस पर विश्वास करते हों ।

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