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सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है

१४

दूसरे दिन पद्मसिंह सदन को साथ किसी लेकर स्कूल में दाखिल कराने चले। किंतु जहां गए, साफ जवाब मिला ‘स्थान नहीं है।’ शहर में बारह पाठशालाएं थीं। लेकिन सदन के लिए कहीं स्थान न था।

शर्माजी ने विवश होकर निश्चय किया कि मैं स्वयं पढ़ाऊंगा। प्रातःकाल तो मुवक्किलों के मारे अवकाश नहीं मिलता। कचहरी से आकर पढ़ाते, किंतु एक ही सप्ताह में हिम्मत हार बैठे। कहां कचहरी से आकर पत्र पढ़ते थे, कभी हारमोनियम बजाते, कहां अब एक बूढ़े तोते को रटाना पड़ता था। वह बारंबार झुंझलाते, उन्हें मालूम होता कि सदन मंद-बुद्धि है। यदि वह कोई पढ़ा हुआ शब्द पूछ बैठता, तो शर्माजी झल्ला पड़ते। वह स्थान उलट-पुलटकर दिखाते, जहां वह शब्द प्रथम आया था। फिर प्रश्न करते और सदन ही से उस शब्द का अर्थ निकलवाते। इस उद्योग में काम कम होता था, किंतु उलझन बहुत थी। सदन भी उनके सामने पुस्तक खोलते हुए डरता। वह पछताता कि कहां-से-कहां यहां आया, इससे तो गांव ही अच्छा था। चार पंक्तियां पढ़ाएंगे, लेकिन घंटों बिगड़ेंगे। पढ़ा चुकने के बाद शर्माजी कुछ थक-से जाते। सैर करने को जी नहीं चाहता। उन्हें विश्वास हो गया कि इस काम की क्षमता मुझमें नहीं है।

मुहल्ले में एक मास्टर साहब रहते थे। उन्होंने बीस रुपए मासिक पर सदन को पढ़ाना स्वीकार किया। अब चिंता हुई कि रुपए आएं कहां से? शर्माजी फैशनेबुल मनुष्य थे, खर्च का पल्ला सदा दबा ही रहता था। फैशन का बोझ अखरता तो अवश्य था, किंतु उसके सामने कंधा न डालते थे। बहुत देर तक एकांत में बैठे सोचते रहे, किंतु बुद्धि ने कुछ काम न किया, तब सुभद्रा के पास जाकर बोले– मास्टर बीस रुपए पर राजी है।

सुभद्रा– तो क्या मास्टर ही न मिलते थे। मास्टर तो एक नहीं सौ है, रुपए कहां हैं?

शर्माजी– रुपए भी ईश्वर कहीं से देंगे ही।

सुभद्रा– मैं तो कई साल से देख रही हूं, ईश्वर ने कभी विशेष कृपा नहीं की। बस, इतना दे देते हैं कि पेट की रोटियां चल जाएं, वही तो ईश्वर हैं!

पद्मसिंह– तो तुम्हीं कोई उपाय निकालो।

सुभद्रा– मुझे जो कुछ देते हो, मत देना बस!

पद्मसिंह– तुम तो जरा-सी बात में चिढ़ जाती हो।

सुभद्रा– चिढ़ने की बात ही करते हो, आय-व्यय तुमसे छिपा नहीं है, मैं और कौन-सी बचत निकाल दूंगी? दूध-घी की तुम्हारे यहां नदी नहीं बहती, मिठाई-मुरब्बे में कभी फफूंदी नहीं लगी, कहारिन के बिना काम चलने ही का नहीं, महाराजिन का होना जरूरी है। और किस खर्चे में कमी करने को कहते हो?

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