सदाबहार >> वरदान (उपन्यास) वरदान (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...
विरजन– कौन ले चलेगा? महरी को बुला लो (चौंककर) अरे! तेरे हाथों में रुधिर कहाँ से आया?
माधवी– ऊँह! फूल चुनती थी, कांटे लग गये होंगे।
चन्द्रा– अभी नयी साड़ी आयी है। आज ही फाड़ के रख दी।
माधवी– तुम्हारी बला से!
माधवी ने कह तो दिया, किन्तु आँखें अश्रुपूर्ण हो गयीं। चन्द्रा साधारणतः बहुत भली स्त्री थी। किन्तु जब से बाबू राधाचरण ने जाति सेवा के लिए नौकरी से इस्तीफा दे दिया था वह बालाजी के नाम से चिढ़ती थी। विरजन से तो कुछ न कह सकती थी, परन्तु माधवी को छेड़ती रहती थी। विरजन ने चन्द्रा की ओर घूरकर माधवी से कहा– जाओ, सन्दूक से दूसरी साड़ी निकाल लो। इसे रख आओ। राम-राम, मार हाथ छलनी कर डाले!
माधवी– देर हो जाएगी, मैं इसी भाँति चलूंगी।
विरजन– नहीं, अभी घण्टा भर से अधिक अवकाश है।
यह कहकर विरजन ने प्यार से माधवी के हाथ धोए। उसके बाल गूंथे, एक सुन्दर साड़ी पहनाई, चादर ओढ़ायी और उसे हृदय से लगाकर सजल नेत्रों से देखते हुए कहा– बहिन! देखो, धीरज हाथ से न जाय।
माधवी मुस्कुराकर बोली– तुम मेरे ही संग रहना, मुझे संभालती रहना। मुझे अपने हृदय पर भरोसा नहीं है।
विरजन ताड़ गई कि आज प्रेम ने उन्मत्तता का पद ग्रहण किया है और कदाचित् यही उसकी पराकाष्ठा है। हां! यह बावली बालू की भीत उठा रही है।
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