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वरदान (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8670

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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...


प्राणनाथ– हमने कोई तैयारी तो की नहीं, रोक क्या लेंगे? और यह भी तो नहीं ज्ञात है कि किधर से जाएंगे।

विरजन– (सोचकर)आरती उतारने का प्रबन्ध तो करना ही होगा।

प्राणनाथ– हां अब इतना भी न होगा? मैं बाहर बिछावन आदि बिछवाता हूं।

प्राणनाथ बाहर की तैयारियों में लगे, माधवी फूल चुनने लगी, विरजन ने चांदी का थाल धो-धोकर स्वच्छ किया। सेवती और चन्द्रा भीतर सारी वस्तुएं क्रमानुसार सजाने लगीं।

माधवी हर्ष के मारे फूली न समाती थी। बारम्बार चौंक-चौंककर द्वार की ओर देखती कि कहीं आ तो नहीं गए। बारम्बार कान लगाकर सुनती कि कहीं बाजे की ध्वनि तो नहीं आ रही है। हृदय हर्ष के मारे धड़क रहा था। फूल चुनती थी, किन्तु ध्यान दूसरी ओर था। हाथों में कितने ही कांटे चुभा लिए। फूलों के साथ कई शाखाएं मरोड़ डालीं। कई बार शाखाओं में उलझकर गिरी। कई बार साड़ी कांटों में फंसा दी उस समय उसकी दशा बिलकुल बच्चों की-सी थी।

किन्तु विरजन का बदन बहुत ही मलिन था। जैसे जलपूर्ण पात्र तनिक हिलने पर छलक जाता है, उसी प्रकार ज्यों-ज्यों प्राचीन घटनाएं स्मरण आती थीं, त्यों-त्यों उसके नेत्रों से अश्रु छलक पड़ते थे। आह! कभी वे दिन थे कि हम और वह भाई-बहन थे। साथ खेलते, साथ रहते थे। आज चौदह वर्ष व्यतीत हुए, उनका मुख देखने का सौभाग्य भी न हुआ। तब मैं तनिक भी रोती वह मेरे आँसू पोछते और मेरा जी बहलाते। अब उन्हें क्या सुधि कि ये आँखें कितनी रोई हैं और इस हृदय ने कैसे-कैसे कष्ट उठाये हैं। क्या खबर थी कि हमारे भाग्य ऐसे दृश्य दिखायेंगे? एक वियोगिन हो जाएगी और दूसरा संन्यासी।

अकस्मात् माधवी को ध्यान आया कि सुवामा को कदाचित बालाजी के आने की सूचना न हुई हो। वह विरजन के पास आकर बोली– मैं तनिक चाची के यहाँ जाती हूँ। न जाने किसी ने उनसे कहा या नहीं?

प्राणनाथ बाहर से आ रहे थे, यह सुनकर बोले– वहाँ सबसे पहले सूचना दी गई। भली-भँति तैयारियाँ हो रही हैं। बालाजी भी सीधे घर ही की ओर पधारेंगे। इधर से अब न आयेंगे।

विरजन– तो हम लोगों को चलना चाहिए। कहीं देर न हो जाए।

माधवी– आरती का थाल लाऊँ?

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