लोगों की राय

सदाबहार >> वरदान (उपन्यास)

वरदान (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8670

Like this Hindi book 1 पाठकों को प्रिय

24 पाठक हैं

‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...


सुवामा के हृदय में नवीन इच्छाओं ने सिर उठाया है। जब तक बालाजी को न देखा था, तब तक उसकी सबसे बड़ी अभिलाषा यह थी कि वह उन्हें आँखें भर कर देखती और हृदय-शीतल कर लेती। आज जब आँखें भर देख लिया तो कुछ और देखने की इच्छा उत्पन्न हुई। शोक! वह इच्छा उत्पन्न हुई माधवी के घरौंदे की भांति मिट्टी में मिल जाने के लिए।

आज सुवामा, विरजन और बालाजी में सायंकाल तक बातें होती रहीं। बालाजी ने अपने अनुभवों का वर्णन किया। सुवामा ने अपनी राम कहानी सुनायी और विरजन ने कहा थोड़ा, किन्तु सुना बहुत। मुंशी संजीवनलाल के संन्यास का समाचार पाकर दोनों रोयीं। जब दीपक जलने का समय आ पहुँचा, तो बालाजी गंगा की ओर संध्या करने चले और सुवामा भोजन बनाने बैठी। आज बहुत दिनों के पश्चात सुवामा मन लगाकर भोजन बना रही थी। दोनों बातें करने लगीं।

सुवामा– बेटी! मेरी यह हार्दिक अभिलाषा थी कि मेरा लड़का संसार में प्रतिष्ठित हो और ईश्वर ने मेरी लालसा पूरी कर दी। प्रताप ने पिता और कुल का नाम उज्ज्वल कर दिया। आज जब प्रातःकाल मेरे स्वामीजी की जय सुनायी जा रही थी तो मेरा हृदय उमड़-उमड़ आया था। मैं केवल इतना चाहती हूँ कि वे यह वैराग्य त्याग दें। देश का उपकार करने से मैं उन्हें नहीं रोकती। मैंने तो देवीजी से यही वरदान मांगा था, परन्तु उन्हें संन्यासी के वेश में देखकर मेरा हृदय विदीर्ण हुआ जाता है।

विरजन सुवामा का अभिप्राय समझ गयी। बोली– चाची! यह बात तो मेरे चित्त में पहिले ही से जमी हुई है। अवसर पाते ही अवश्य छेडूंगी।

सुवामा– अवसर तो कदाचित ही मिले। इसका कौन ठिकाना? अभी जी में आये, कहीं चल दें। सुनती हूं सोटा हाथ में लिये अकेले वनों में घूमते हैं। मुझसे अब बेचारी माधवी की दशा नहीं देखी जाती। उसे देखती हूं तो जैसे कोई मेरे हृदय को मसोसने लगता है। मैंने बहुतेरी स्त्रियां देखीं और अनेक का वृत्तान्त पुस्तकों में पढ़ा; किन्तु ऐसा प्रेम कहीं नहीं देखा। बेचारी ने आधी आयु रो-रोकर काट दी और कभी मुख न मैला किया। मैंने कभी उसे रोते नहीं देखा; परन्तु रोने वाले नेत्र और हंसने वाले मुख छिपे नहीं रहते। मुझे ऐसी ही पुत्रवधू की लालसा थी, सो भी ईश्वर ने पूर्ण कर दी। तुमसे सत्य कहती हूं, मैं उसे पुत्रवधू समझती हूं। आज से नहीं, वर्षों से।

वृजरानी– आज उसे सारे दिन रोते ही बीता। बहुत उदास दिखायी देती है।

सुवामा– तो आज ही इसकी चर्चा छेड़ो। ऐसा न हो कि कल किसी ओर प्रस्थान कर दे, तो फिर एक युग प्रतीक्षा करनी पड़े।

वृजरानी– (सोचकर) चर्चा करने को तो मैं करूं, किन्तु माधवी स्वयं जिस उत्तमता के साथ यह कार्य कर सकती है, कोई दूसरा नहीं कर सकता।

सुवामा– वह बेचारी मुख से क्या कहेगी?

वृजरानी– उसके नेत्र सारी कथा कह देंगे?

सुवामा– लल्लू अपने मन में क्या कहेंगे?

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book