लोगों की राय

सदाबहार >> वरदान (उपन्यास)

वरदान (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8670

Like this Hindi book 1 पाठकों को प्रिय

24 पाठक हैं

‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...


वृजरानी– कहेंगे क्या? यह तुम्हारा भ्रम है जो तुम उसे कुंवारी समझ रही हो, वह प्रतापचन्द्र की पत्नी बन चुकी। ईश्वर के यहाँ उसका विवाह उनसे हो चुका यदि ऐसा न होता तो क्या जगत में पुरुष न थे? माधवी जैसी स्त्री को कौन नेत्रों में न स्थान देगा? उसने अपना आधा यौवन व्यर्थ रो-रोकर बिताया है। उसने आज तक ध्यान में भी किसी अन्य पुरुष को स्थान नहीं दिया। बारह वर्ष से तपस्विनी का जीवन व्यतीत कर रही है। वह पलंग पर नहीं सोयी। कोई रंगीन वस्त्र नहीं पहना। केश तक नहीं गुंथाये। क्या इन व्यवहारों से नहीं सिद्व होता कि माधवी का विवाह हो चुका? हृदय का मिलाप सच्चा विवाह है। सिन्दूर का टीका, ग्रन्थि-बन्धन और भांवर– ये सब संसार के ढकोसले हैं।

सुवामा– अच्छा, जैसा उचित समझो करो। मैं केवल जगहंसाई से डरती हूं।

रात को नौ बजे थे। आकाश पर तारे छिटके हुए थे। माधवी वाटिका में अकेली बैठी हुई तारों को देखती थी और मन में सोचती थी कि ये देखने में कैसे चमकीले हैं, किन्तु अति दूर हैं। क्या कोई वहां तक पहुंच सकता है? क्या मेरी आशाएं भी उन्हीं नक्षत्रों की भांति है? इतने में विरजन ने उसका हाथ पकड़कर हिलाया। माधवी चौंक पड़ी।

विरजन– अंधेरे में बैठी क्या कर रही है?

माधवी– कुछ नहीं, तो तारों को देख रही हूं। वे कैसे सुहावने लगते हैं, किन्तु मिल नहीं सकते।

विरजन के कलेजे में बर्छी-सी लग गयी। धीरज धरकर बोली– यह तारे गिनने का समय नहीं है। जिस अतिथि के लिए आज भोर से ही फूली नहीं समाती थी, क्या इसी प्रकार उसकी अतिथि-सेवा करेगी।

माधवी– मैं ऐसे अतिथि की सेवा के योग्य कब हूं

विरजन– अच्छा, यहां से उठो तो मैं अतिथि-सेवा की रीति बताऊं।

दोनों भीतर आयीं। सुवामा भोजन बना चुकी थी। बालाजी को माता के हाथ की रसोई बहुत दिनों में प्राप्त हुई। उन्होंने बड़े प्रेम से भोजन किया। सुवामा खिलाती जाती थी और रोती जाती थी। बालाजी खा पीकर लेटे, तो विरजन ने माधवी से कहा– अब यहां कोने में मुख बांधकर क्यों बैठी हो?

माधवी– कुछ दो तो खाके सो रहूं, अब यही जी चाहता है।

विरजन– माधवी! ऐसी निराश न हो। क्या इतने दिनों का व्रत एक दिन में भंग कर देगी?

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book