सदाबहार >> वरदान (उपन्यास) वरदान (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...
माधवी कुछ काल तक इसी विचार में मग्न बैठी रही। अचानक उसके कान में भक-भक की ध्वनि आयी। उसने चौंककर देखा तो बालाजी का कमरा अधिक प्रकाशित हो गया था और प्रकाश खिड़कियों से बाहर निकलकर आंगन में फैल रहा था। माधवी के पांव तले से मिट्टी निकल गयी। ध्यान आया कि मेज पर लैम्प भभक उठा। वायु की भांति वह बालाजी के कमरे में घुसी। देखा तो लैम्प फटकर पृथ्वी पर गिर पड़ा है और भूतल के बिछावन में तेल फैल जाने के कारण आग लग गयी है। दूसरे किनारे पर बालाजी सुख से सो रहे थे। अभी तक उनकी निद्रा न खुली थी। उन्होंने कालीन समेटकर एक कोने में रख दिया था। विद्युत की भांति लपककर माधवी ने वह कालीन उठा लिया और भभकती हुई ज्वाला के ऊपर गिरा दिया। धमाके का शब्द हुआ तो बालाजी ने चौंककर आंखें खोलीं। घर में धुआं भरा था और चतुर्दिक तेल की दुर्गन्ध फैली हुई थी। इसका कारण वह समझ गये। बोले– कुशल हुआ, नहीं तो कमरे में आग लग गई थी।
माधवी– जी हां! यह लैम्प गिर पड़ा था।
बालाजी– तुम बड़े अवसर से आ पहुंची।
माधवी– मैं यहीं बाहर बैठी हुई थी।
बालाजी– तुमको बड़ा कष्ट हुआ। अब जाकर शयन करो। रात बहुत हो गयी है।
माधवी– चली जाऊंगी। शयन तो नित्य ही करना है। यह अवसर न जाने फिर कब आये?
माधवी की बातों में अपूर्व करुणा भरी थी। बालाजी ने उसकी ओर ध्यानपूर्वक देखा। जब उन्होंने पहिले माधवी को देखा था, उसके समय वह एक खिलती हुई कली थी और आज वह एक मुरझाया हुआ पुष्प है। न मुख पर सौन्दर्य था, न नेत्रों में आनन्द की झलक, न मांग में सोहाग का सिंदूर था, न माथे पर सोहाग का टीका। शरीर में आभूषणों का चिन्ह भी न था। बालाजी ने अनुमान से जाना कि विधाता ने ठीक तरुणावस्था में इस दुखिया का सोहाग हरण किया है। परम उदास होकर बोले– क्यों माधवी! तुम्हारा तो विवाह हो गया है न?
माधवी के कलेजे में कटारी चुभ गयी। सजल नेत्र होकर बोली– हा, हो गया है।
बालाजी– और तुम्हार पति?
माधवी– उन्हें मेरी कुछ सुध ही नहीं है। उनका विवाह मुझसे नहीं हुआ।
बालाजी विस्मित होकर बोले– तुम्हारा पति करता क्या है?
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