सदाबहार >> वरदान (उपन्यास) वरदान (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...
कैसा चित्ताकर्षक दृश्य था। गीत यद्यपि साधारण था, परन्तु अनेक और सधे हुए स्वरों ने मिलकर उसे ऐसा मनोहर और प्रभावशाली बना दिया कि पांव रुक गए। चतुर्दिक सन्नाटा छा गया। सन्नाटे में यह राग ऐसा सुहावना प्रतीत होता था जैसे रात्रि के सन्नाटे में बुलबुल का चहकना। सारे दर्शक चित्त की भांति खड़े थे। दीन भारतवासियों, तुमने ऐसे दृश्य कहां देखे? इस समय जी भरकर देख लो। तुम वेश्याओं के नृत्य-वाद्य से सन्तुष्ट हो गये। वारांगनाओं की काम-लीलाएँ बहुत देख चुके, खूब सैर सपाटे किए, परन्तु यह सच्चा आनन्द और यह सुखद उत्साह, जो इस समय तुम अनुभव कर रहे हो तुम्हें कभी और भी प्राप्त हुआ था? मनमोहनी वेश्याओं के संगीत और सुन्दरियों का काम-कौतुक तुम्हारी वैषयिक इच्छाओं को उत्तेजित करते हैं। किन्तु तुम्हारे उत्साहों को और निर्बल बना देते हैं और ऐसे दृश्य तुम्हारे हृदयों में जातीयता और जाति-अभिमान का संचार करते हैं। यदि तुमने अपने जीवन में एक बार भी यह दृश्य देखा है, तो उसका पवित्र चिह्न तुम्हारे हृदय से कभी नहीं मिटेगा।
बालाजी का दिव्य मुखमंडल आत्मिक आनन्द की ज्योति से प्रकाशित था और नेत्रों से जात्याभिमान की किरणें निकल रही थीं। जिस प्रकार कृषक अपने लहलहाते हुए खेत को देखकर आनन्दोन्मत्त हो जाता है, वही दशा इस समय बालाजी की थी। जब राग बन्द हो गया, तो उन्होंने कई डग आगे बढ़कर दो छोटे-छोटे बच्चों को उठा कर अपने कंधों पर बैठा लिया और बोले, ‘भारत-माता की जय!’
इस प्रकार शनैः-शनैः लोग राजघाट पर एकत्र हुए। यहाँ गोशाला का एक गगनस्पर्शी विशाल भवन स्वागत के लिये खड़ा था। आंगन में मखमल का बिछावन बिछा हुआ था। गृहद्वार और स्तंभ फूल-पत्तियों से सुसज्जित खड़े थे। भवन के भीतर एक सहस्र गायें बंधी हुई थीं। बालाजी ने अपने हाथों से उनकी नांदों में खली-भूसा डाला। उन्हें प्यार से थपकियाँ दी। एक विस्तृत गृह में संगमरमर का अष्टभुज कुण्ड बना हुआ था। वह दूध से परिपूर्ण था। बालाजी ने एक चुल्लू दूध लेकर नेत्रों से लगाया और पान किया।
अभी आंगन में लोग शान्ति से बैठने भी न पाये थे कई मनुष्य दौड़े हुए आए और बोले– पण्डित बदलू शास्त्री, सेठ उत्तमचन्द्र और लाला माखनलाल बाहर खड़े कोलाहल मचा रहे हैं और कहते हैं। कि हमको बालाजी से दो-दो बातें कर लेने दो। बदलू शास्त्री काशी के विख्यात पण्डित थे। सुन्दर चन्द्र-तिलक लगाते, हरी बनात का अंगरखा परिधान करते और बसन्ती पगड़ी बांधते थे। उत्तमचन्द्र और माखनलाल दोनों नगर के धनी और लक्षाधीश मनुष्य थे। उपाधि के लिए सहस्रों व्यय करते और मुख्य पदाधिकारियों का सम्मान और सत्कार करना अपना प्रधान कर्त्तव्य जानते थे। इन महापुरुषों का नगर के मनुष्यों पर बड़ा दबाव था। बदलू शास्त्री जब कभी शास्त्रार्थ करते, तो निःसंदेह प्रतिवादी की पराजय होती। विशेषकर काशी के पण्डे और प्राग्वाले तथा इसी पन्थ के अन्य धार्मिकगण तो उनके पसीने की जगह रुधिर बहाने को उद्यत रहते थे। शास्त्री जी काशी में हिन्दू धर्म के रक्षक और महान् स्तम्भ सदृश थे। उत्तमचन्द्र और माखनलाल भी धार्मिक उत्साह की मूर्ति थे। ये लोग बहुत दिनों से बालाजी से शास्त्रार्थ करने का अवसर ढूंढ रहे थे। आज उनका मनोरथ पूरा हुआ। पंडों और प्राग्वालों का एक दल लिये आ पहुंचे।
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