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वरदान (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8670

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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...


बालाजी ने इन महात्माओं के आने का समाचार सुना तो बाहर निकल आये। परन्तु यहां की दशा विचित्र पाई। उभय पक्ष के लोग लाठियां संभाले अंगरखे की बांहें चढ़ाये गुंथने को उद्यत थे। शास्त्रीजी प्राग्वालों को भिड़ने के लिए ललकार रहे थे और सेठजी उच्च स्वर से कह रहे थे कि इन शूद्रों की धज्जियां उड़ा दो अभियोग चलेगा तो देखा जाएगा। तुम्हारा बाल-बांका न होने पायेगा। माखनलाल साहब गला फाड़-फाड़कर चिल्लाते थे कि निकल आये जिसे कुछ अभिमान हो। प्रत्येक को सब्जबाग दिखा दूंगा। बालाजी ने जब यह रंग देखा तो राजा धर्मसिंह से बोले– आप बदलू शास्त्री को जाकर समझा दीजिये कि वह इस दुष्टता को त्याग दें, अन्यथा दोनों पक्षवालों की हानि होगी और जगत में उपहास होगा सो अलग।

राजा साहब के नेत्रों से अग्नि बरस रही थी। बोले, इस पुरुष से बातें करने में अपनी अप्रतिष्ठा समझता हूं। उसे प्राग्वालों के समूहों का अभिमान है परन्तु मैं आज उसका सारा मद चूर्ण कर देता हूं। उनका अभिप्राय इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं है कि वे आपके ऊपर वार करें। पर जब तक मैं और मेरे पांच पुत्र जीवित हैं तब तक कोई आपकी ओर कुदृष्टि से नहीं देख सकता। आपके एक संकेत-मात्र की देर है। मैं पलक मारते उन्हें इस दुष्टता का स्वाद चखा दूंगा।

बालाजी जान गये कि यह वीर उमंग में आ गया है। राजपूत जब उमंग में आता है तो उसे मरने-मारने के अतिरिक्त और कुछ नहीं सूझता। बोले– राजा साहब, आप दूरदर्शी होकर ऐसे वचन कहते हैं? यह अवसर ऐसे वचनों का नहीं है। आगे बढ़कर अपने आदमियों को रोकिये, नहीं तो परिणाम बुरा होगा।

बालाजी यह कहते-कहते अचानक रुक गये। समुद्र की तरंगों की भांति लोग इधर-उधर से उमड़ते चले आते थे। हाथों में लाठियां थीं और नेत्रों में रुधिर की लाली, मुखमंडल क्रुद्व, भृकुटी कुटिल। देखते-देखते यह जन-समुदाय प्राग्वालों के सिर पर पहुंच गया। समय सन्निकट था कि लाठियां सिर को चूमें कि बालाजी विद्युत की भांति लपककर एक घोड़े पर सवार हो गये और अति उच्च स्वर में बोले–

भाइयो! यह क्या अंधेर है? यदि मुझे अपना मित्र समझते हो तो झटपट हाथ नीचे कर लो और पैरों को एक इंच भी आगे न बढ़ने दो। मुझे अभिमान है कि तुम्हारे हृदयों में वीरोचित क्रोध और उमंग तरंगित हो रहे हैं। क्रोध एक पवित्र उद्वेग और पवित्र उत्साह है। परन्तु आत्म-संवरण उससे भी अधिक पवित्र धर्म है। इस समय अपने क्रोध को दृढ़ता से रोको। क्या तुम अपनी जाति के साथ कुल का कर्त्तव्य पालन कर चुके कि इस प्रकार प्राण विसर्जन करने पर कटिबद्व हो? क्या तुम दीपक लेकर भी कूप में गिरना चाहते हो? ये लोग तुम्हारे स्वदेश बान्धव और तुम्हारे ही रुधिर हैं। उन्हें अपना शत्रु मत समझो! यदि वे मूर्ख हैं तो उनकी मूर्खता का निवारण करना तुम्हारा कर्तव्य है। यदि वे तुम्हें अपशब्द कहें तो तुम बुरा मत मानो। यदि वे तुमसे युद्व करने को प्रस्तुत हों, तुम नम्रता से स्वीकार कर लो और एक चतुर वैद्य की भांति अपने विचारहीन रोगियों की औषधि करने में तल्लीन हो जाओ। मेरी इस आशा के प्रतिकूल यदि तुममें से किसी ने हाथ उठाया तो वह जाति का शत्रु होगा।

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