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वरदान (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8670

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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...

(२६) मतवाली योगिनी

माधवी प्रथम ही से मुरझायी हुई कली थी। निराशा ने उसे खाक में मिला दिया। बीस वर्ष की तपस्विनी योगिनी हो गयी। उस बेचारी का भी कैसा जीवन था कि या तो मन में कोई अभिलाषा ही उत्पन्न न हुई, या हुई तो दुर्दैव ने उसे कुसुमित न होने दिया। उसका प्रेम एक अपार समुद्र था। उसमें ऐसी बाढ़ आयी कि जीवन की आशाएं और अभिलाषाएं सब नष्ट हो गयीं। उसने योगिनी के वे वस्त्र पहिन लिए। वह सांसरिक बन्धनों से मुक्त हो गयी। संसार इन्हीं इच्छाओं और आशाओं का दूसरा नाम हैं। जिसने उन्हें नैराश्य-नद में प्रवाहित कर दिया, उसे संसार में समझना भ्रम है।

इस प्रकार के मद से मतवाली योगिनी को एक स्थान पर शांति न मिलती थी। पुष्प की सुगंधि की भांति देश-देश भ्रमण करती और प्रेम के शब्द सुनाती फिरती थी। उसके प्रीत वर्ण पर गेरुए रंग का वस्त्र परम शोभा देता था। इस प्रेम की मूर्ति को देखकर लोगों के नेत्रों से अश्रु टपक पड़ते थे। जब वह अपनी वीणा बजाकर कोई गीत गाने लगती तो सुनने वालों के चित्त अनुराग में पग जाते थे उसका एक-एक शब्द प्रेम रस में डूबा होता था।

मतवाली योगिनी को बालाजी के नाम से प्रेम था। वह अपने पदों में प्रायः उन्हीं की कीर्ति सुनाती थी। जिस दिन से उसने योगिनी का वेष धारण किया और लोक-लाज को प्रेम के लिए परित्याग कर दिया उसी दिन से उसकी जिह्वा पर मानो सरस्वती बैठ गयी। उसके सरस पदों को सुनने के लिए लोग सैकडों कोस चले जाते थे। जिस प्रकार मुरली की ध्वनि सुनकर गोपियां घरों से व्याकुल होकर निकल पड़ती थीं उसी प्रकार इस योगिनी की तान सुनते ही श्रोताजनों का नद उमड़ पड़ता था। उसके पद सुनना आनन्द के प्याले पीना था।

इस योगिनी को किसी ने हंसते या रोते नहीं देखा। उसे न किसी बात पर हर्ष था, न किसी बात का विषाद। जिस मन में कामनाएं न हों, वह क्यों हंसे और क्यों रोये? उसका मुख-मण्डल आनन्द की मूर्ति था। उस पर दृष्टि पड़ते ही दर्शक के नेत्र पवित्र आनन्द से परिपूर्ण हो जाते थे।

समाप्त

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