सदाबहार >> वरदान (उपन्यास) वरदान (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...
इसी बीच में बालाजी बाहर निकले। स्त्रियां भी उनकी ओर बढ़ीं। बालाजी सुवामा को देखा तो निकट आकर उसके चरण स्पर्श किये। सुवामा ने उन्हें उठाकर हृदय में लगाया। कुछ कहना चाहती थी, परन्तु ममता से मुख न खोल सकी। रानी जी फूलों की जयमाल लेकर चली कि उसके कण्ठ में डाल दूं, किन्तु चरण थर्राए और आगे न बढ़ सकीं। वृजरानी चन्दन का थाल लेकर चलीं, परन्तु नेत्र श्रावण-धन की भांति बरसने लगें। तब माधवी चली। उसके नेत्रों में प्रेम की झलक थी और मुंह पर प्रेम की लाली। अधरों पर मोहिनी मुस्कान झलक रही थी और मन प्रेमानन्द में मग्न था। उसने बालाजी की ओर ऐसी चितवन से देखा जो अपार प्रेम से भरी हुई थी। तब सिर नीचा करके फूलों की जयमाला उसके गले में डाली। ललाट पर चन्दन का तिलक लगाया। लोकसंस्कार की न्यूनता, वह भी पूरी हो गयी। उस समय बालाजी ने गम्भीर सांस ली। उन्हें प्रतीत हुआ कि मैं अपार प्रेम के समुद्र में बहा जा रहा हूं। धैर्य का लंगर उठ गया और उसे मनुष्य की भांति जो अकस्मात् जल में फिसल पड़ा हो, उन्होंने माधवी की बांह पकड़ ली। परन्तु हा! जिस तिनके का उन्होंने सहारा लिया वह स्वयं प्रेम की धार में तीव्र गति से बहा जा रहा था। उनका हाथ पकड़ते ही माधवी के रोम-रोम में बिजली दौड़ गयी। शरीर में स्वेद-बिन्दु झलकने लगे और जिस प्रकार वायु के झोंके से पुष्पदल पर पड़े हुए ओस के जलकण पृथ्वी पर गिर जाते हैं, उसी प्रकार माधवी के नेत्रों से अश्रु के बिन्दु बालाजी के हाथ पर टपक पड़े। ये प्रेम के मोती थे, जो उन मतवाली आंखों ने बालाजी को भेंट किये। आज से ये आँखें फिर न रोयेंगी।
आकाश पर तारे छिटके हुए थे और उनकी आड़ में बैठी हुई स्त्रियां यह दृश्य देख रही थीं आज प्रातःकाल बालाजी के स्वागत में यह गीत गाया था–
‘बालाजी, तेरा आना मुबारक होवे।’
और इस समय स्त्रियां अपने मन-भावन स्वरों से गा रही हैं–
‘बालाजी, तेरा जाना मुबारक होवे।’
आना भी मुबारक था और जाना भी मुबारक है। आने के समय भी लोगों की आंखों से आंसू निकले थे और जाने के समय भी निकल रहे हैं। कल वे नवागत के अतिथि स्वागत के लिए आए थे। आज उसकी विदाई कर रहे हैं उनके रंग-रूप सब पूर्ववत हैं; परन्तु उनमें कितना अन्तर है।
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