सदाबहार >> वरदान (उपन्यास) वरदान (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...
सुहावने रागों के आलाप से भवन गूंज रहा था कि अचानक सदिया का समाचार वहां भी पहुंचा और राजा धर्मसिंह यह कहते हुए सुनायी दिये– आप लोग बालाजी को विदा करने के लिए तैयार हो जायें वे अभी सदिया जाते हैं।
यह सुनते ही अर्धरात्रि का सन्नाटा छा गया। सुवामा घबड़ाकर उठी और द्वार की ओर लपकी, मानो वह बालाजी को रोक लेगी। उसके संग सब की सब स्त्रियां उठ खड़ी हुईं और उसके पीछे-पीछे चलीं। वृजरानी ने कहा– चाची। क्या उन्हें बरबस विदा करोगी? अभी तो वे अपने कमरे में हैं।
‘मैं उन्हें न जाने दूंगी। विदा करना कैसा?
वजृरानी– उनका सदिया जाना आवश्यक है।
सुवामा– मैं क्या सदिया को लेकर चाटूंगी? भाड़ में जाय! मैं भी तो कोई हूं? मेरा भी तो उन पर कोई अधिकार है?
वृजरानी– तुम्हें मेरी शपथ, इस समय ऐसी बातें न करना। सहस्रों मनुष्य केवल उनके भरोसे पर जी रहे हैं। यह न जायेंगे तो प्रलय हो जायगा।
माता की ममता ने मनुष्यत्व और जातित्व को दबा लिया था, परन्तु वृजरानी ने समझा-बुझाकर उसे रोक लिया। सुवामा इस घटना को स्मरण करके सर्वदा पछताया करती थी। उसे आश्चर्य होता था कि मैं आपे के बाहर क्यों हो गयी! रानी जी ने पूछा– विरजन बालाजी को कौन जयमाल पहिनायेगा।
विरजन– आप।
रानीजी– और तुम क्या करोगी?
विरजन– मैं उनके माथे पर तिलक लगाऊंगी।
रानीजी– माधवी कहां है?
विरजन– (धीरे-से) उसे न छेड़ो। बेचारी अपने ध्यान में मग्न है।
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