लोगों की राय

सदाबहार >> वरदान (उपन्यास)

वरदान (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8670

Like this Hindi book 1 पाठकों को प्रिय

24 पाठक हैं

‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...


सुवामा– मेरी अच्छी विरजन! बता तो क्या सोचती थी?

विरजन– (लजाते हुए) सोचती थी कि...जाओ हंसो मत। न बतलाऊंगी।

सुवामा– अच्छा ले, न हंसूंगी, बताओ। ले यही तो अब अच्छा नहीं लगता, फिर मैं आंखें मूंद लूंगी!

विरजन– किसी से कहोगी तो नहीं?

सुवामा– नहीं, किसी से न कहूंगी।

विरजन– सोचती थी कि जब प्रताप से मेरा विवाह हो जायेगा, तब बड़े आनन्द से रहूंगी।

सुवामा ने उसे छाती से लगा लिया और कहा– बेटी, वह तो तेरा भाई है।

विरजन– हां भाई है। मैं जान गई। तुम मुझे बहू न बनाओगी।

सुवामा– आज लल्लू को आने दो, उससे पूछूँ देखूं क्या कहता है?

विरजन– नहीं, नहीं, उनसे न कहना मैं तुम्हारे पैरों पडूं।

सुवामा– मैं तो कह दूंगी।

विरजन– तुम्हें हमारी कसम, उनसे न कहना।

(५) शिष्ट-जीवन के दृश्य

दिन जाते देर नहीं लगती। दो वर्ष व्यतीत हो गये। पण्डित मोटेराम नित्य प्रातःकाल आते और सिद्वान्त-कौमुदी पढ़ाते, परन्तु अब उनका आना केवल नियम पालने के हेतु ही था, क्योंकि इस पुस्तक के पढ़ने में अब विरजन का जी न लगता था। एक दिन मुंशी जी इंजीनियर के दफ्तर से आये। कमरे में बैठे थे। नौकर जूते का फीता खोल रहा था कि रधिया महरी मुस्कुराती हुई घर में से निकली और उनके हाथ में मुहर छाप लगा हुआ लिफाफा रख, मुंह फेर हंसने लगी। सिरनाम पर लिखा हुआ था– श्रीमान बाबा साहब की सेवा में प्राप्त हो।

मुंशी– अरे, तू किसका लिफाफा ले आयी? यह मेरा नहीं है।

महरी– सरकार ही का तो है, खोलें तो आप।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book