सदाबहार >> वरदान (उपन्यास) वरदान (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...
मुंशी– किसने दिया? कोई आदमी बाहर से आया था?
महरी मुस्कुराती हुई बोली आप खालेंगे तो पता चल जाएगा।
मुंशी जी ने विस्मित होकर लिफाफा खोला। उसमें से जो पत्र-निकला उसमें यह लिखा हुआ था–
‘बाबा को विरजन का प्रमाण और पालागन पहुंचे। यहां आपकी कृपा से कुशल-मंगल है आपका कुशल श्री विश्वनाथजी से सदा मनाया करती हूं। मैंने प्रताप से भाषा सीख ली। वे स्कूल से आकर संध्या को मुझे नित्य पढ़ाते हैं। अब आप हमारे लिए अच्छी-अच्छी पुस्तकें लाइए, क्योंकि पढ़ना ही जीवन का सुख है और विद्या अमूल्य वस्तु है। वेद-पुराण में इसका माहात्म्य लिखा है। मनुष्य को चाहिए कि विद्या-धन तन-मन से एकत्र करे। विद्या से सब दुख दूर हो जाते हैं। मैंने कल बैताल-पचीसी की कहानी चाची को सुनायी थी। उन्होंने मुझे एक सुन्दर गुड़िया पुरस्कार में दी है। बहुत अच्छी है। मैं उसका विवाह करूंगी, तब आपसे रुपये लूंगी। मैं अब पण्डितजी से न पढूंगी। मां नहीं जानती कि मैं भाषा पढ़ती हूं।
विरजन
प्रशस्ति देखते ही मुंशी जी के अन्तःकरण में गुदगुदी होने लगी। फिर तो उन्होंने एक ही सांस में सारी चिट्ठी पढ़ डाली। मारे आनन्द के हंसते हुए नंगे-पांव भीतर दौड़े। प्रताप को गोद में उठा लिया और फिर दोनों बच्चों का हाथ पकड़े हुए सुशीला के पास गये। उसे चिट्ठी दिखाकर कहा– बूझो किसकी चिट्ठी है?
सुशीला– लाओ, हाथ में दो, देखूं।
मुंशीजी– नहीं, वहीं से बैठी-बैठी बताओ जल्दी।
सुशीला– बूझ जाऊं तो क्या दोगे?
मुंशीजी– पचास रुपये, दूध के धोये हुए।
सुशीला– पहिले रुपये निकालकर रख दो, नहीं तो मुकर जाओगे।
मुंशीजी– करने वाले को कुछ कहता हूं, अभी रुपये लो ऐसा कोई टुटपुँजिया समझ लिया है?
यह कहकर दस रुपये का एक नोट जेब से निकालकर दिखाया।
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