सदाबहार >> वरदान (उपन्यास) वरदान (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...
सुशीला– कितने का नोट है?
मुंशीजी– पचास रुपये का, हाथ से लेकर देख लो।
सुशीला– ले लूंगी, कहे देती हूं।
मुंशीजी– हां-हां, ले लेना, पहले बता तो सही।
सुशीला– लल्लू का है लाइये नोट, अब मैं न मानूंगी। यह कहकर उठी और मुंशीजी का हाथ थाम लिया।
मुंशीजी– ऐसा क्या डकैती है। नोट छीने लेती हो।
सुशीला– वचन नहीं दिया था? अभी से विचलने लगे।
मुंशीजी– तुमने बूझा भी, सर्वथा भ्रम में पड़ गयीं।
सुशीला– चलो चलो, बहाना करते हो, नोट हड़पने की इच्छा है। क्यों लल्लू, तुम्हारी ही चिट्ठी है न?
प्रताप नीची दृष्टि से मुंशीजी की ओर देखकर धीरे से बोला– मैंने कहां लिखी?
मुंशीजी– लजाओ, लजाओ।
सुशीला– वह झूठ बोलता है। उसी की चिट्ठी है, तुम लोग गांठकर आये हो।
प्रताप– मेरी चिट्ठी नहीं है, सच! विरजन ने लिखी है।
सुशीला चकित होकर बोली– विजरन की? फिर उसने दौड़कर पति के हाथ से चिट्ठी छीन ली और भौंचक्की होकर उसे देखने लगी, परन्तु अब भी विश्वास न आया। विरजन से पूछा– क्यों बेटी, यह तुम्हारी लिखी है?
विरजन ने सिर झुकाकर कहा– हां।
यह सुनते ही माता ने उसे कण्ठ से लगा लिया।
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